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जल - पंकज त्रिवेदी

जल बहता है -

झरनें बनकर, लिए अपनी शुद्धता का बहाव
वन की गहराई को, पेड़, पौधों, बेलों की झूलन को लिए
जानी-अनजानी जड़ीबूटियों के चमत्कारों से समृद्ध होकर
निर्मलता में तैरते पत्थरों को कोमल स्पर्श से शालिग्राम बनाता हुआ
धरती का अमृत बनकर वनवासियों का, प्राणियों का विराम !

जल बहता है -
नदी बनकर, नालों का बोझ उठाती, कूड़ा घसीटती
मंद गति से बहती, अपने निज रंग पर चढी कालिमा को लिए
भटकती है गाँव-शहरों की सरहदों से छिल जाते अपने अस्तित्व को लेकर
केमिकल्स की चिपचिपाहट, ज़हरीले साँप का पर्याय बनती हुई
थकी-हारी सी, यौवन में भी वृद्धत्व को सहती, टेढ़ी चाल चलती हुई

जल स्थिर है -
किसी मूढ़ व्यक्ति के पेट के समान सबकुछ पचाता है
रंग बदलता है आसमान के बहाने गिरगिट की तरह गरदन फूलता हुआ
सुनने के ढोंग करते खुद का शोर मचाता कभी चुप होकर आक्रमण करता
प्रकृति के खज़ाने पर कुण्डली लगाएं बैठा है धीर-गंभीर-गूढ़-मूढ़ बनकर
संसार के कर्ता-धर्ता को शेषशैय्या के प्रलोभन से बंदी बनाकर उफ़नता कभी

जल बहता है -
मेरे अंदर, तुम्हारे अंदर, उन रगों को खोलता हुआ, कभी खौलता हुआ
बहता है, बदलता है अपने मूल रंग की लालिमा को छोड़कर बन जाता है
कभी जातिवादी काला रंग, हरा रंग और खुद के साम्राज्य को स्थापित करता है
इंसानों को भ्रमित करता हुआ लड़ाता है इंसानों से, अपनी नस्ल को बर्बाद करता
कौन हारता, बर्बाद होता, कौन बहता है मेरे-तुम्हारे अंदर जल के रूप में...

* * *
(मौलिक एवं अप्रकाशित) 2 April 2015

Views: 747

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Comment by Pankaj Trivedi on May 14, 2015 at 10:26am

प्रिय सौरभ भाई,

सराहना हेतु खुशी के साथ आभारी हूँ 

Comment by Pankaj Trivedi on May 14, 2015 at 10:26am

डॉ. आशुतोष मिश्रा जी,

नमस्कार 

आपको 'जल' रचना पसंद आई यही मेरा सौभाग्य... धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2015 at 3:59pm

बहुत खूब !

आपकी सूक्ष्म किन्तु जागरुक दृष्टि की एक और बानग़ी.. .

वाह, आदरणीय पंकजभाई ..!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 2, 2015 at 1:38pm

आदरणीय पंकज जी .इस रचना की जितनी तारीफ़ की जाए कम है ..अद्भुत सन्देश देती , मुझे यह रचना बेहद पसंद आयी इसके लिए आपको तहे दिल बधाई सादर 

Comment by Pankaj Trivedi on April 19, 2015 at 12:31pm

आदरणीय श्री सूबे सिंह सुजान जी,

मैं आपकी प्रतिक्रिया से खुश हूँ और आभारी हूँ हौसला बढाने के लिए - धन्यवाद

Comment by सूबे सिंह सुजान on April 17, 2015 at 9:28pm

पंकज जी जल पर सटीक रचना पर बधाई।।। 

जल बहता है -
मेरे अंदर, तुम्हारे अंदर, उन रगों को खोलता हुआ, कभी खौलता हुआ
बहता है, बदलता है अपने मूल रंग की लालिमा को छोड़कर बन जाता है
कभी जातिवादी काला रंग, हरा रंग और खुद के साम्राज्य को स्थापित करता है
इंसानों को भ्रमित करता हुआ लड़ाता है इंसानों से, अपनी नस्ल को बर्बाद करता
कौन हारता, बर्बाद होता, कौन बहता है मेरे-तुम्हारे अंदर जल के रूप में...

अच्छी बात रखी है

Comment by Pankaj Trivedi on April 4, 2015 at 6:09am

श्री श्याम जी, श्री महर्षि त्रिपाठी जी, श्री श्याम नरेन वर्मा जी, श्री समर कबीर जी, श्री मिथिलेश वामनकर जी और डॉ विजय शंकर जी, आप सभी को मेरी रचना पसंद आई यह मेरा सौभाग्य है... प्रतिक्रिया देने के लिए ह्रदय से आभारी हूँ | 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 4, 2015 at 5:59am
पानी का असर जीवन पर होता है ,
पानी रंग भी बदलता है ।
कुछ क्लिष्ट पर सारगर्भित प्रस्तुति , बधाई , आदरणीय पंकज त्रिवेदी जी , सादर ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 8:56pm

आदरणीय पंकज जी इस गंभीर और सशक्त प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई निवेदित है....

\\कौन हारता, बर्बाद होता, कौन बहता है मेरे-तुम्हारे अंदर जल के रूप में...\\-- अंतिम पंक्ति कविता की जान है भाई महर्षि जी .. पूरी कविता यहीं आकर खुलती है.... इसके पीछे छिपे मूल भाव से ही कविता की सार्थकता समझ आती है. कौन का प्रश्न ही अपने में उत्तर छिपायें है.... मेरे तुम्हारे भीतर अविश्वास, लालच, जातिवाद, अधर्म, स्वार्थ और वह सब कुछ जो इंसानियत के खिलाफ है, जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है, बह रहा है जल (वैज्ञानिक कहते है खून में 95% जल होता है जो सामान्य रूप से भी समझ आता है.) बनकर. जीन खराब किये दे रहा है. 

Comment by Samar kabeer on April 3, 2015 at 2:45pm
जनाब पंकज त्रिवेदी जी,आदाब,सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकार करें |

कृपया ध्यान दे...

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