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ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

 

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले

जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

 

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे

मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

 

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में

मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

 

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2015 at 10:51am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ. मिथिलेश वामनकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2015 at 10:49am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. गोपाल नारायन जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 1, 2015 at 10:48am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. श्याम नारायण जी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2015 at 3:48pm

आदरनीय धर्मेन्द्र जी ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में बहुत मज़ा आया ..शानदार   इस रचना के लिए हार्दिक बढ़ाए स्वीकार करें सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 25, 2015 at 8:13am

.

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर..... बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 24, 2015 at 11:26pm

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे

मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

 

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में

मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर   ----- क्या बात है , आदरणीय धर्मेन्द्र भाई ,  खूबसूरत ग़ज़ल हुई है , आपको दिली बधाइयाँ ।

Comment by Samar kabeer on March 24, 2015 at 4:46pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार जी,आदाब,सुन्दर ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें |
Comment by somesh kumar on March 23, 2015 at 8:38pm

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ

आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

बहुत ज़मीनी बात कह दी आपने ,आनन्द ही आनन्द !

Comment by दिनेश कुमार on March 23, 2015 at 7:13pm
बहुत अच्छी ग़ज़ल भाई धर्मेंद्र जी। वाह वाह

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 2:31pm
वाह वाह धर्मेन्द्र भाई क्या खूब ग़ज़ल कही है। कितनी बातें एक साथ याद आ गई। फ़ैज़ साहब का कलाम, जयदेव की धुन, छाया गांगुली की आवाज़ और आपकी ग़ज़ल को गुनगुनाते हुए कितनी ही यादों से गुजर गया। आनंद आ गया। झूम गया आपकी ग़ज़ल गुनगुनाकर। हार्दिक आभार इस प्रस्तुति के लिए।

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