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तरही ग़ज़ल -- "फानी है ये जहान यहाँ कुछ न लाजवाल"

221-2121-1221-212

चेहरे सभी ड़रे ड़रे आवाज़ पुर-मलाल
दहशत में आया शह्र ये, जब से हुआ बवाल

दुनिया की इस बिसात पे सपनों का दांव है
हर आदमी के ख़ू में छुपी इक अजीब चाल

मौला हो पादरी हो कोई संत हो यहाँ
दिखता न मुझको एक भी महबूब-ए-ज़ुल-जलाल

लीडर हमारे देश के बहरूपिये हुए
अन्दर से सारे भेड़िये, बाहर हो कोई खाल

रस्मो रिवाज़ ही रहे रिश्तों के दरमियाँ
अब कौन पूछता है यहाँ दिल से हाल-चाल

हर 'आम' ज़िन्दगी का लगे बोझ ढ़ो रहा
हर ख़ास के खुशी से हैं फूले हुए से गाल

तूफान और दिये की भी बदली वो दास्ताँ
अब आँधियों के सामने दीपक दिखें निढ़ाल

शोहरत की हम बुलन्दियों पर जा के भूलते
"फानी है ये जहान यहाँ कुछ न लाजवाल"

-- दिनेश कुमार ०५/०३/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on March 7, 2015 at 8:41pm

वाह दिनेश भाई ! सुन्दर ग़ज़ल ! बधाई 

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 6, 2015 at 12:00pm
वाह खूब कहा है सर जी वाह बधाई

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