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ग़ज़ल - निर्मल नदीम

गिरा के अपनी ही आँखों से खून काग़ज़ पर,
तलाश करता रहा दिल सुकून काग़ज़ पर.


जला के खाक ही कर दे जहान को आशिक़,
अगर उतार दे अपना जुनून काग़ज़ पर..

ग़ज़ल का एक भी मिसरा नहीं कहा मैनें,
थिरक रहा है किसी का फुसून काग़ज़ पर.

कहीं ये अक्स - ए- तमन्ना ही तो नहीं तेरा,
उभर के आया है जो सर निगून काग़ज़ पर..

तमाम रात की तन्हाइयों से छूटा तो
तड़प उठा है वफ़ा का जुनून काग़ज़ पर..

"नदीम" को भी बुलाना अदब की महफ़िल में,
सजा के लाता है दर्द - ए - दुरून काग़ज़ पर..


निर्मल नदीम (मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 26, 2015 at 11:58am
हा हा हा बहुत आभार खुर्शीद सर।
आप लफ्ज़ ग्रुप के सशक्त रचनाकार है।
आदरणीय नदीम जी बहुत अच्छी गज़लें कहते है और फेसबुक पर जो अन्य गज़लें पोस्ट होती है उन्हें अरूज़ अनुसार सुधारने के लिए सुझाव भी साझा करते है। नदीम जी के कमेंट्स पढ़कर ही उनसें उनकी ग़ज़लों तक पहुंच हुई थी।
Comment by MAHIMA SHREE on February 26, 2015 at 11:30am

गिरा के अपनी ही आँखों से खून काग़ज़ पर,
तलाश करता रहा दिल सुकून काग़ज़ पर.....बहुत -2 बधाई आपको

Comment by Nirmal Nadeem on February 26, 2015 at 10:06am
खुरशीद भाई शुक्रिया।

मितजिलेश सर मुझे यह नही मालूम था। आइन्दा ख़याल रखूँगा
Comment by khursheed khairadi on February 26, 2015 at 9:48am

आदरणीय मिथिलेश जी सर आपकी सक्रियता वन्दनीय है ,मैं तो केवल दो पोर्टल , "लफ्ज़ ग्रुप "और "ओ बी ओ " पर उपस्तिथ रहने की कोशिश में ही बरहम (अस्त-व्यस्त ) हो जाता हूं |आप कहाँ कहाँ विराजमान हैं भगवन ,,,धन्य है |सोशल साइट्स पर क्या ऐसी ग़ज़ल है जो आप त्रिकालदर्शी के सजग नयन से न गुजरी हो |धन्य हैं आप |शत शत प्रणाम (कृपया प्रहसन को अन्यथा न लें ) हा...हा....हा..| सादर |

Comment by khursheed khairadi on February 26, 2015 at 9:42am

तमाम रात की तन्हाइयों से छूटा तो
तड़प उठा है वफ़ा का जुनून काग़ज़ पर..

"नदीम" को भी बुलाना अदब की महफ़िल में,
सजा के लाता है दर्द - ए - दुरून काग़ज़ पर..

 आदरणीय नदीम साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 26, 2015 at 2:24am

आदरणीय निर्मल नदीम जी, आपकी ग़ज़ल से गुजरते हुए लग रहा था कि आपसे और आपकी ग़ज़लों से पहले भी भेंट हुई है किन्तु याद नहीं आ रहा था. आपका obo पर पर्सनल पेज देखा तो ये आपकी पहली पोस्ट थी. बहुत याद करने पर याद आया कि फेसबुकिया ग़ज़लों पर कमेंट्स के दौरान आपके कमेंट्स पढ़े और फिर आपकी गज़लें भी पढ़ी. आपकी ये ग़ज़ल फेसबुक पर आप 20 फरवरी को ही पोस्ट कर चुके है इसलिए ये ग़ज़ल अप्रकाशित नहीं रही. इस मंच के नियमानुसार पूर्व में प्रकाशित रचना को पोस्ट करना वर्जित है. इसलिए आपसे निवेदन है कि केवल अप्रकाशित रचनाएँ ही पोस्ट करें ताकि  मंच के नियम का उल्लंघन न हो. सुलभ सन्दर्भ हेतु -  

Comment by Nirmal Nadeem on February 26, 2015 at 1:21am
hari prakash dubey sahab nawazish aapki
Comment by Nirmal Nadeem on February 26, 2015 at 1:21am
ajay sharma sahab aapke mashwire pr amal karte huye aainda diya karunga.
Comment by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 11:44pm

आदरणीय निर्मल नदीम जी बेहतरीन रचना है हार्दिक बधाई आपको !

Comment by ajay sharma on February 25, 2015 at 10:52pm

urdu ke zyada klisht words ke priyog ki isthiti me unke arth bhi de diye jaye to aur bhi behar hoga .. 

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