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ग़ज़ल -- सुब्ह से शाम हम कमाते हैं

सुब्ह से शाम हम कमाते हैं
तब भी मुश्किल से घर चलाते हैं

ये विरासत में हमको सीख मिली
हम तो मेहनत की रोटी खाते हैं

शाम होते ही हम परिन्दों से
लौट कर अपने घर को आते हैं

जिनके सर पर खुदा का हाथ है वो
आँधियों में दिये जलाते हैं

रोज़-ए-महशर की छोड़ कर चिन्ता
रिन्द मयखाने रोज़ जाते हैं

मुझको दुनिया सराय लगती है
लोग आते हैं लोग जाते हैं

हम तो फुरसत में दिल के छालों को
शे'र के पर्दों में छुपाते हैं

दर्द -ए-ग़म क्यूँ किसी पे हो ज़ाहिर
हम यही सोच मुस्कुराते हैं

चाँद तारे 'दिनेश' सब हमको
उस खुदा की ज़िया दिखाते हैं

-- दिनेश कुमार २०/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by दिनेश कुमार on February 20, 2015 at 6:44pm
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर जी, बहुत आभारी हूँ।
Comment by दिनेश कुमार on February 20, 2015 at 6:43pm
शुक्रिया Hari Prakash Dubey सर जी। आप ने हौसला बढ़ाया।
Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 20, 2015 at 5:58pm

भाई दिनेश कुमार जी गजल ने दिल को छू लिया| बधाई स्वीकार करे.

Comment by maharshi tripathi on February 20, 2015 at 4:40pm

खूबसूरत गजल आ.दिनेश जी ,,,,,आपकी हार्दिक बधाई |

Comment by Samar kabeer on February 20, 2015 at 2:22pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,भाई बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 20, 2015 at 1:30pm

दिनेश जी

बेहतरीन प्रयास i सादर i

Comment by Hari Prakash Dubey on February 20, 2015 at 11:08am

सुब्ह से शाम हम कमाते हैं
तब भी मुश्किल से घर चलाते हैं

ये विरासत में हमको सीख मिली
हम तो मेहनत की रोटी खाते हैं.....बहुत बढ़िया दिनेश भाई ! हार्दिक बधाई 

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