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आधी रात

चांदनी और छाँव

तस्करों का हरा-हरा गाँव

जालिमो में कुछ अधेड़

कुछ तरु, कुछ वृक्ष, कुछ पेड़

 

कुछ घर थे गरीबों के भी

दांतों के बीच जीभों के भी

सचमुच बदनसीबों के भी   

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

सन्नाटे में डरा-डरा गाँव

एक गरीब बुढ़िया के द्वार

तेजी से आया इक घुड़सवार

 

बुढिया की बेटी को उठाया

बेरहमी से अश्व पर चढ़ाया

फिर उस जीव को वापस भगाया 
 

आधी रात

चांदनी और छाँव

बूढ़ी आँखों से झरा-झरा गाँव

रोज ही यह सब होता

कौन कहाँ तक रोता  ?

 

बुझी आँख में नींद न समायेगी

जानती वह सुबह पूर्व आयेगी

कभी-बेरहम जवानी ढल जायेगी

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

काला-स्याह मरा-मरा गाँव

आंख से निकलता मोती है सच्चा

बेटी की गोद में नन्हा सा बच्चा

 

जग से शायद टूट गया नाता

भारत में ऐसी भी होती है माता

अब कोई घुड़सवार नहीं आता

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

दर्प अभिमान से भरा-भरा गाँव

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by khursheed khairadi on February 13, 2015 at 1:05am

कुछ घर थे गरीबों के भी

दांतों के बीच जीभों के भी

सचमुच बदनसीबों के भी   

आदरणीय गोपालनारायण सर ,सुन्दर कविता हुई है |शब्द-दर-शब्द सीन (दृश्य )आँखों के सामने उतरता गया है |कविता में कहानी और कहानी में कविता अद्भुत रूप से गूंथी हुई है |हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 12, 2015 at 9:17pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी, क्या खुबसूरत और मार्मिक कविता लिखी है, एक एक पक्ति खुद में एक एक कहानी है, अब घुड़सवार नहीं आता ...ओह !

अच्छी कविता लगी आदरणीय, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर.

Comment by Shyam Narain Verma on February 12, 2015 at 5:02pm
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 12, 2015 at 11:46am
छद्म वीरता जो सिर्फ क्षीण कमजोर पर अँधेरे में वार करती है, जो उत्तरदाईत्व से सदैव मुंह चुराती है, और जिसके असंख्य उदाहरणों से भरीं हैं किसी की गौरव - गाथाएं
, उनकीं याद दिलाती एक नाज़ुक सी गहरी चोट करती रचना। आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी, आपकी लेखनी को एक दीर्घ कालीन इतिहास को समेटती रचना के लिए नमन , सादर।

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