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माॅर्निंग अखबार (लघुकथा)

"अनुपमा, इस पुलिस की नौकरी की तनख्वाह से तो घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। कैसे इनको हम उच्च शिक्षा और सही परवरिश दे पाएंगे?"
"आप ठीक कह रहे हो लेकिन इसका समाधान भी तो नहीं है।"
"समाधान तो है अगर तुम साथ दो तो.....।"
"पहले बताओ तो! क्या समाधान है?"
"तुम्हें बस एक बार मंत्री जी के पास माॅर्निंग का अखबार लेकर जाना होगा। फिर मेरा ट्रांसफर ऐसी जगह हो जाएगा जहाँ तनख्वाह से कई गुना ऊपर की कमाई होगी।"
अनुपमा की माॅर्निंग अखबार की सहमति ने परिवार की सारी आर्थिक परेशानियाँ दूर कर दी।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by विनोद खनगवाल on November 26, 2014 at 3:30pm
आदरणीय शर्मा सर जी, सबकुछ भौतिकता की बली चढ रहा है। धन्यवाद आपका रचना को समय देने के लिए।
Comment by विनोद खनगवाल on November 26, 2014 at 3:22pm
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी धन्यवाद
Comment by harivallabh sharma on November 26, 2014 at 3:12pm

अपनी बेहतरी के लिए इतने घटिया रास्ते भी अख्तियार करने से भी न हिचकने वाले कापुरुष निंदनीय हैं..और ऐसी व्यवस्था भी...आपने साक्षात घटित होते चरित्र उजागर किये...बधाई सटीक लघुकथा हेतु.

Comment by विनोद खनगवाल on November 26, 2014 at 1:29pm
आ. राजेश सही कह रहे हो आप। धन्यवाद
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2014 at 12:55pm

विनोद जी

आपकी इस लघु कथा ने मन मोह लिया  i पता  नहीं यह पुलिसिया चरित्र  है  या फिर सारी मानवता ही निर्मुल्य हो चुकी है  i  सादर i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 26, 2014 at 12:08pm

क्या क्या हथकंडे अपनाते हैं ऐसे मर्द ...या कहूँ नामर्द .......

जबरदस्त कटाक्ष करती है लघुकथा ऐसी घिनौनी मानसिकता पर ..बहुत- बहुत बधाई आपको .

कृपया ध्यान दे...

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