विकृत मस्तिष्क की
उथल पुथल को
तुम क्यों लिखते हो
किसे फ़साने के लिए
ये शब्द-जाल बुनते हो
आड़ी तिरछी रेखायें खींच
छिपा सके न
कुरूपता स्वंय की
अब किसे रिझाने को
व्यर्थ उसमें रंग भरते हो
सावधान अब कुछ मत लिखना
जो लिखा है उसे जला देना
तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा
कोई इसे नहीं पढ़ेगा
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
"Management by exception"..हा ..हा... हा आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी !
आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया एवं प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा
कोई इसे नहीं पढ़ेगा--------- वाह ! एक सिद्धांत है "अपवाद का सिद्धांत "Management by exception" देखिये छप भी गया और
सब पढ़ भी रहे है | कुशल व्यक्ति ही ऐसा कर सकते है | बहुत बहुत बधाई
आपकी रचनाएँ प्रौढ़ता की तरफ बढ़ रही हैं, अच्छा लगा।
आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार आदरणीय राजेश कुमारी जी !
बहुत खूब मन की खिन्नता में बुना शब्दों का ऐसा जाल कि सभी खिंचे चले आयें ये एक रचना कार की कुशलता का ही परिचायक है
बहुत सुन्दर हार्दिक बधाई
आपका हार्दिक आभार आदरणीय
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर
सादर प्रणाम !
हरि प्रकाश जी
कभी कभी वही पठ्नीय होता है जिसे हम अपठनीय समझते है i इसका उल्टा भी होता है i मार्गदर्शक एक छोटा सा भाव अभिव्यक्ति पाकर मुखर हो उठा है i सादर i
इस रचना पर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार सोमेश कुमार जी , आप भी ये मानते होंगे की हर रचना कभी मन की कल्पना और कभी दूसरे व्यक्तियों ,परिस्तिथियों को देखकर जन्म लेती है ,यहाँ रचना का छपना महत्त्वपूर्ण नहीं है !
साभार
हरि प्रकाश दुबे
हर तारा ध्रुव -तारा नहीं होता
हर नाव का किनारा नहीं होता
जो तुम्हारी आँख का तारा हो
वो हर किसी का प्यारा नहीं होता |
परंतु मित्र ,सिर्फ इस उद्देश्य के लिए लिखना की सब आप के विचारों से सहमत हों ,लेखनी को बंधक बनाता है ,विविधता जीवन का सत्य है इसलिए वैचारिक-विविधता का मिलना स्वभाविक है ,जो आप की तरह विचार करेगा वह अवश्य सहमत होगा ,पढ़ेगा |
अंत में यही लिखना चाहूँगा -कर्म किए जा |
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