तपते सूरज से
पिघल रही है बर्फ
बढ़ रहा है जलस्तर
तुम फिर डूबोगे
किसी मनु को खोजोगे
वह नहीं आयेगा
फिर कौन तुम्हे बचायेगा
प्रलय हो जायेगी
इस बार तुम्हें बचाने
कोई नाव नहीं आएगी
तुम पानी हो जाओगे
पर तुम्हे उठाना होगा
वाष्प बनकर उड़ना होगा
उठो बादल बन जाओ
इस जलते सूरज से टकराओ
इस बर्फ को पिघलने से
अगर तुम बचा पाओगे
तो स्वयं मनु बन जाओगे !!
("मौलिक व अप्रकाशित")
Comment
आ. हरि भाई , बढिया कविता हुई है , आपको बधाइयाँ ।
ज़ोरदार कहन आदरणीय //हार्दिक बधाई आपको
प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार छाया शुक्ला जी !
आपकी शैली प्रभावित कर गई बहुत बधाई शानदार श्रृजन के लिए सादर !
आदरणीय हरि प्रसाद जी, संभवतः आपकी कोई पहली रचना पढ़ रहा हूँ. अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी. शुभकामनाएँ स्वीकारें. शुभेच्छाएँ
सुन्दर् भाव i अच्छी कविता i
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