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“जलते सूरज से टकराओ”

तपते सूरज से

पिघल रही है बर्फ

बढ़ रहा है जलस्तर

तुम फिर डूबोगे

किसी मनु को खोजोगे

वह नहीं आयेगा

फिर कौन तुम्हे बचायेगा

प्रलय हो जायेगी

इस बार तुम्हें बचाने

कोई नाव नहीं आएगी

तुम पानी हो जाओगे

पर तुम्हे उठाना होगा

वाष्प बनकर उड़ना होगा

उठो बादल बन जाओ

इस जलते सूरज से टकराओ

इस बर्फ को पिघलने से

अगर तुम बचा पाओगे

तो स्वयं मनु बन जाओगे !!

("मौलिक व अप्रकाशित")

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2014 at 4:48am

आ. हरि भाई , बढिया कविता हुई है , आपको बधाइयाँ ।

Comment by ram shiromani pathak on November 9, 2014 at 2:08pm

ज़ोरदार कहन आदरणीय   //हार्दिक बधाई आपको 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 8, 2014 at 10:26pm

प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार छाया शुक्ला जी !

Comment by Chhaya Shukla on November 8, 2014 at 9:19pm

आपकी शैली प्रभावित कर गई बहुत बधाई शानदार श्रृजन के लिए सादर !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 7, 2014 at 11:10pm
सुन्दर भावों से सजी इस रचना के लिये बधाई आदरणीय.......

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2014 at 11:09pm

आदरणीय हरि प्रसाद जी, संभवतः आपकी कोई पहली रचना पढ़ रहा हूँ. अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी. शुभकामनाएँ स्वीकारें. शुभेच्छाएँ

Comment by Hari Prakash Dubey on November 7, 2014 at 8:49pm
आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार श्री सुनील जी
Comment by shree suneel on November 7, 2014 at 8:27pm
Bahut khoob!
Tum paani ho jaoge/
par tumhe uthna hoga/
utho badal ban jaao/
is jalte sooraj se takrao..

..achchhi rachana
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 7, 2014 at 7:01pm

सुन्दर् भाव  i अच्छी कविता i


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 7, 2014 at 12:17pm
//इस जलते सूरज से टकराओ
इस बर्फ को पिघलने से
अगर तुम बचा पाओगे
तो स्वयं मनु बन जाओगे !!//
अति सुन्दर आ० हरी प्रकाश दुबे जी।

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