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नैन कटीले …

नैन कटीले होठ रसीले
बाला ज्यों मधुशाला
कुंतल करें किलोल कपोल पर
लज्जित प्याले की हाला
अवगुंठन में गौर वर्ण से
तृषा चैन न पाये
चंचल पायल की रुनझुन से मन
भ्रमर हुआ मतवाला
प्रणय स्वरों की मौन अभिव्यक्ति
एकांत में करे उजाला
मधु पलों में नैन समर्पण
करें प्रेम श्रृंगार निराला

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on November 7, 2014 at 6:47pm
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" रचना पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार।
Comment by Sushil Sarna on November 7, 2014 at 6:45pm
आदरणीय Shyam Narain Verma रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2014 at 12:35pm

आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी यह कविता शृंगार (इस शब्द का शुद्ध वर्तनी यही है) रस से आप्लावित है. आपके प्रयास के लिए हार्दिक आभार आदरणीय.
यों बिम्बों एवं प्रतीकों में कोई नयापन नहीं है. लेकिन प्रस्तुतीकरण को आकर्षक बनाया जा सकता था यदि इन भावों को मात्रिक कर साधा जाता. छन्दमुक्त होने के बावज़ूद प्रवाह को पकड़ने का प्रयास किया गया है. यह एक सकारात्मक स्थिति है.

ऐसे विषयों पर, इसी तरह की विधा में, आदरणीय सुशीलजी, केदारनाथ अग्रवाल की ’जमुन जल तुम’ या ’हे मेरी सुन’ को पढ़ सकते हैं. कथ्य और बिम्ब की दृष्टि से केदारनाथ अग्रवाल को पढ़ना कविकर्म के हिसाब से अत्यंत उचित होगा.
सादर



प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 7, 2014 at 12:32pm
नमोहक प्रस्तुति आ० सुशील सरना जी, हार्दिक बधाई।

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 7, 2014 at 10:42am

शृंगार रस से पगी रचना अच्छी हुयी है, बधाई आदरणीय सरना जी।

Comment by Shyam Narain Verma on November 7, 2014 at 10:22am

" सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ .................. "

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