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हो कितनी स्वछन्द ऐ कविता! (नवगीत 'राज')

धरती से नीले अम्बर तक

बिना किसी व्यवधान

इठलाती तितली सी चंचल

भरती रहे  उड़ान 

ना कोई सीमा ना कोई बंद

हो कितनी स्वछन्द

ऐ कविता!

कभी करुण रस से आप्लावित   

भीगे आखर से बोझिल   

कभी डूब शिंगार झील में

आती नख- शिख तक झिलमिल  

कभी गरल तू विरह का  पीती  

कभी नेह  मकरंद

हो कितनी स्वछन्द

ऐ कविता!

कभी परों पर लगा बसंती

रंग अबीर गुलाबी लाल

कहीं बिठाती दीये  पंगति

पहन हास प्रहास की माल

जीती कभी रौद्र के पलछिन

 कभी धर्म के द्वन्द

 हो कितनी स्वछन्द

 ऐ कविता!

 

विभत्स, अमेध्य लोक पंक की

हो तुम्ही शुचि निज पंकजा

मूर्त, अमूर्त, वारि से थल तक

फहराती अपनी ध्वजा

मेरी इन साँसों की मीता

ग़ज़ल तुम्ही हो छंद

हो कितनी स्वछन्द

ऐ कविता!

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

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Comment by rajesh kumari on October 10, 2014 at 8:15pm

शिज्जू भैया, नवगीत  पर आपकी प्रतिक्रिया को पढ़कर अभिभूत हूँ ,मेरा लिखना सार्थक हुआ पाठक को रचना संतुष्ट करे तो लेखक को तो समझो पारितोषिक मिल जाता है वही स्थिति मेरी है हृदय से आभार आपका |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2014 at 5:45pm

अद्भुत, अनिवर्चनीय , अनुपम , अद्वितीय

आदरणीय और

क्या कहूं ?    नमस्तुभ्यं i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 10, 2014 at 2:52pm

आदरणीया राज जी इस रचना को गुनगुनाते हुए ऐसा लगा जैसे किसी मंच से कोई अच्छी रचना का पाठ कर रहा हूँ ..इस रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई सादर 

Comment by somesh kumar on October 9, 2014 at 9:24pm

कविता के यथार्थ और उसके सभी रूपों का सुंदर चित्रण 

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 9, 2014 at 8:59pm
कविता की स्वछंदता को परिभाषित करती रचना के लिए बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 9, 2014 at 7:44pm

आदरणीया राजेश दीदी बेहतरीन गीत है पढ़ो तो बस पढ़ते जाओ शब्दों का खूबसूरत प्रयोग हुआ है, भाव भी प्रभावित करते हैं। बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये।

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