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ये मेरी वाली है (लघुकथा) // --शुभ्रांशु पाण्डेय

 जैऽऽ…….दुर्गामइया की जैऽऽऽ……

नाव के एकबारगी हिचकोले खाने के साथ ही दुर्गा एवं संलग्न प्रतिमाओं का विसर्जन हो गया. माता, माता के शृंगार, शेर के अयाल, महिष के सींग, असुर की फैली भुजायें, सबकुछ एक साथ जल में समाने लगे.  

मूर्ति के साथ साथ मनुआ भी पानी में कूदा. उसे न तो दानव का कोई डर था, न उसे माता के आशीर्वाद चाहिये थे.

“अबे.. ये मेरी वाली है..”, कहता हुआ वो डूबती हुई प्रतिमाओं की ओर तैर चला.

उसे उनके पास बाकियों से पहले पहुँचना था, ताकि आने वाली ठंड में अम्मा-बाबूजी को तापने के लिये लकड़ी के पटरों और खपच्चियों का इंतजाम हो सके.

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Shubhranshu Pandey on October 9, 2014 at 9:45pm

कथा पर समय देने के लिये घन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 8, 2014 at 12:28am

जरूरतें कब कहाँ कुछ सोचने देती है, और फिर माता-पिता तो सर्वोपरि है. बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय शुभ्रांशु जी

Comment by वेदिका on October 7, 2014 at 7:45am
माँ विसर्जन का एक और पहलू उजागर करती हुयी लघुकथा .. बधाई आ० शुभ्रांशु जी!

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 6, 2014 at 10:57pm

लघुकथा तो ठीक ठाक ही है मगर शीर्षक (जोकि लघुकथा का अभिन्न अंग होता है) बेहद इर्रेलेवेंट है भाई शुभ्रांशु जी।

Comment by विनय कुमार on October 6, 2014 at 9:40pm

बहुत सुन्दर और सटीक लघुकथा शुभ्रांशु जी | बधाई स्वीकारें..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 6, 2014 at 6:11pm

शुभ्रांशु जी आपने जो लिखा है वो नजारा मैं गणपति विसर्जन के दौरान मुंबई में देख कर आ रही हूँ कुछ गरीब बच्चे लहरों की परवाह किये बगैर कुछ सामान झोली में इकठ्ठा कर रहे थे आपकी कहानी पढ़ते ही वो ग्रंथि सुलझ गई ,सच में निर्धनता क्या नहीं करवाती ,बहुत मार्मिक भाव .बहुत- बहुत बधाई इस लघु कथा के लिए. 

Comment by Shyam Narain Verma on October 6, 2014 at 5:52pm

बहुत अच्छी लघुकथा , बधाई..

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