नवरात्रि के जश्न में कुछ सुलगते प्रश्न - डॉ हृदेश चौधरी
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार कुंवारी कन्याएँ माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती है साक्षात देवी माँ का स्वरूप मानी जाती है इसलिए “ या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता” भाव के साथ अष्टमी और नवमी के दिन कन्या (कंजिका) पूजन किया जाता है। वेदिक काल के पूर्व से ही कन्या पूजन का विधान रहा है और धर्मशास्त्रों में भी इस बात की स्वीकारोक्ति है कि कन्या पूजन से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। हमारा पूरा समाज शास्त्रों में कही गयी बातों का अक्षरशः पालन करता है फिर क्यों हम कन्या पूजन के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैंठते हैं। देवी के नौ रूपों की पूजा अर्चना पूर्ण श्रद्धा-भाव के साथ करते हें, उनमे अधिकाशतः महिलाएं ही होती हैं जो कभी सास बनकर अपनी बहू से कन्या भ्रूण हत्या जैसा अपराध करने को विवश कर देती हैं। कहाँ विलुप्त हो जाता है उस समय कन्या पूजन का भाव? कैसी आस्था और कैसा विश्वास कि एक हाथ से कन्या पूजन का ढोंग वहीं दूसरे हाथ से कन्या भ्रूण हत्या। नारी के विविध रूपों कन्या, युवती,पुत्रवधू, पत्नी, माता, बहन आदि के बिना हम परिवार की कल्पना नहीं कर सकते हैं, और जब कन्या भ्रूण हत्या का ये सिलसिला अनवरत चलता रहेगा तो कहाँ से आएंगी कन्याएँ कैसे होगा आने वाले समाज का सृजन।
आज जब हमारा समाज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है और अंधविश्वास को छोड़ आधुनिकता की ओर बढ्ने का हम दावा कर रहे हें फिर उसी आधुनिक परिवार में कन्या जन्म की बात सुनकर हमारे चेहरे फक क्यू हो जाते हें। और अगर उस कन्या का जन्म नहीं हुआ तो मारने कि प्लानिंग भी उसी आधुनिक परिवार में की जाती हैं। यहाँ यह कहना मुनासिब होगा कि बड़े घरों में कन्या भ्रूण हत्याएँ ज्यादा होती हैं। वास्तविकता यह है कि हम असल ज़िंदगी में आधुनिक नहीं हुये।
भारतीय संस्कृति भी समाज को यही सिखाती है कि क्या कन्या पूजन से बड़ी कोई पूजा नहीं, शादी में कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं, माँ के चरणों के सिवा कहीं जन्नत नहीं और पत्नी को चारों धाम कहा गया साथ ही हम अर्धनारीश्वर कि पूजा करते हें। इन सब मे विश्वास करने वाले समाज से कैसे चूक हो जाती है, कैसे गलती कर बैठता। और आश्चर्य होता है कि कन्या भ्रूण हत्या, छेड़छाड़, एसिड हमले, यौन शोषण, दुष्कर्म, दहेज उत्पीड़न, ऑनर किलिंग, घरेलू हिंसा जैसे मामले रोज हमे अखबार में कभी पड़ौस में देखने और सुनने को मिल रहे हें फिर क्यू करते हें कन्या पूजन का दिखावा? जिस पूजन का सम्मान भी न कर सके? उसका जश्न बेमानी है। वास्तविकता की तराजू में जब हम खुद तुलते हैं तो श्रद्धा पर अंधविश्वास हावी हो जाता है। जिसके फलस्वरूप कभी कन्या भ्रूण हत्या तो कभी दहेज हत्या के गुनहगार बनकर सामने आकर खड़े हो जाते हैं।
आज़ादी के बाद से शायद यह पहला सुखद अवसर था कि स्वतन्त्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से देश के प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बेटियों पर चिंता जताई है बातों ही बातों में प्रधानमंत्री ने यह संदेश दे दिया कि बेटियाँ समाज के लिए बेशकीमती हैं। अतएव कानून के साथ-साथ समाज का भी दायित्व है कि इस दिशा में भी प्रयास करें। जिस समाज की सोच इतनी असंवेदनशील है कि बेटियाँ को जन्म ही न लेने दे वहाँ उन्हें शिक्षित, शसक्त और सुरक्षित रखने के दावे, दावे भर ही रह जाते हें। दुखद ही है कि हमारे समाज में बेटियों का पूजन और वंदन है तो मानमर्दन भी है, जब बेटियों के सम्मान ही नहीं तो उनका सशक्तिकरण कैसे होगा? बड़े बड़े मंचों में सशक्तिकरण की दुहाई देने वाले ये बड़े लोग ही कन्या भ्रूण हत्या के सबसे ज्यादा पक्षधर होते हैं।
विचारणीय यह भी है कि भ्रूण हत्या और लिंगभेद के खिलाफ तमाम सरकारी जागरुक अभियान, कन्या सुरक्षा, और शिक्षा के नाम पर मीडिया और टीवी चैनलों पर प्रचार प्रसार का होना, राज्य सरकार द्वारा हेल्पलाइन चालू करना, इसके पश्चात भी देश की राजधानी जैसे बलात्कार सरेआम हो रहे हें आखिर क्या कमी रह जाती है कि तमाम प्रचार प्रसार और बड़ी बड़ी बातों के बावजूद भ्रूण हत्या और बलात्कार रुकने का नाम ही नहीं लेते। इन घटनाओं को देखने से तो नहीं लगता कि हम एक सभ्य समाज का निर्माण करने की सोच रहे हें और हमारा देश विकसित से विकासशील होने जा रहे हैं, विकास और सुशासन का हर वो वादा बेमानी है जबतक समाज को कलंकित होने वाली घटनाएँ होती रहेंगी। तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ हमारा समाज भौतिकता और भोगविलास के दलदल में धँसता जा रहा है। अगर मंथन किया जाय तो प्रमुख वजह यही दिखाई देती है कि पाश्चात्यीकरण के साथ ही हम सभी भारतीय संस्कार और मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। बुढ़ापे की लाठी हमको बस बेटा ही दिखाई देता है चाहे वो वृद्धाश्रम की दहलीज़ पर ले जाकर क्यू न खड़ा कर दे । बेटी हमेशा हमारे लिए पराया धन ही होती हैं जबकि जरूरत के वक़्त वो ही माँ बाप के काम आती हैं। एक तरफ किराये की कोख का बढ़ता चलन और दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या से उसी कोख का अपमान । किस मोड पर आकर खड़े हो गए हैं हम ।
मंगल फतेह करने का गौरव भी हम अपने नाम कर चुके है और तकनीकी क्षेत्र में भी बहुत आगे निकल चुके हैं बावजूद इसके हमारी सोच और मानसिकता आज भी स्थिर है और जो चीज़ स्थिर हो उसमें नकारात्मक भावना आ जाती है । इसी स्थिर सोच और नकारात्मक नजरिए को बदलने में हम कामयाब नहीं हो पा रहे हैं ये कैसा विरोधाभास है एक तरफ कन्याओं की पूजा होती है और दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएँ। कुछ समय पहले तक गाँव मोहल्ले में किसी की बेटी को पूरे गाँव मोहल्ले की बेटी कहा जाता था और उसकी रक्षा पूरा गाँव करता था आज इक्कीसवी सदी तक आते आते स्थितियाँ ठीक इसके विपरीत हो गयी हैं आज पड़ौसी भी किसी की बेटी को अपनी बेटी के तुल्य नहीं समझता है रक्षा करना तो दूर की बात।
महिसासुरी मानसिकता के लोग बिना भय के समाज में रहते हें जिससे लगता कि आसुरी शक्तियाँ अपनी चरम पर हैं। कन्याओं का तिरस्कार और शोषण यूं ही बढ़ता रहा तो शायद फिर कोई कन्या काली का रूप धारण करेगी और सभी महिसासुरों का अंत करेगी तब जाकर सही मायनों में नवरात्रि का पर्व पूर्ण होगा। क्या हम सब नवरात्रि के इस पावन पर्व पर अपने आपसे यह वादा कर सकते कि हम सब कन्याओं के प्रति सकारात्मक सोच रखेंगे और उसकी सुरक्षा करेंगे और उनको समुचित मान सम्मान भी कन्या पूजन की तरह ही देंगे।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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बहुत अच्छा आलेख लिखा है आपने ,ये ऐसे प्रश्न हैं जो सदा से समाज में उभरते रहे हैं और समाज द्वारा ही दबाये गए हैं किन्तु अब वक़्त बदल रहा है नारी शिक्षा नारियों को जागरूक करने के साथ अपने ऊपर हुए अन्याय के खिलाफ सर उठाने की शक्ति दे रही है जरूरत है एक जुट होकर इन कुरीतियों का नाश करने की भ्रूण हत्या के खिलाफ जैम कर आवाज उठाने की जो जबरदस्ती भ्रूण हत्या करवाए जरूरत है उसको सलाखों के पीछे भिजवाने की न की नतमस्तक होकर इस अन्याय को बढ़ावा दें |बहुत बहुत बधाई आपको इस आलेख के लिए |
आपने एक बहुत ही गहन विषय पर अपना प्रश्न रख छोड़ा है. आदरणीय बागी जी के विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ, इस आलेख पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीया डा.हृदेश जी
आदरणीया डॉ साहिबा, कुछ प्रश्न ऐसे होते है जो सदैव सामयिक होते हैं, भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियाँ अधिकतर पढ़े लिखे और तथाकथित कुलीन परिवारों में है और इसको फाइनल टच देने का कार्य भी समाज के क्रीम प्रोफेसन के लोग अर्थात डाक्टर अंजाम देते हैं, चंद सिक्को की खनखनाहट इन्हे बहरा और अंधा बनाये हुए है, क्या कही जाय, नारी ही नारी को मारने पर तुली है।
एक सामयिक आलेख पर बधाई प्रेषित करता हूँ , स्वीकार करें .
सत्य कहा आपने ।
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