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है जहाँ में सदा तन के चलता पिता।
हँस दूँ इक बार में घोड़ा बनता पिता।
वो जगत का पिता ये है मेरा पिता।
नाम इससे लिया उसने लगता पिता।

दिन मिरे थे कभी बेफिकर वो सभी
मौज करता रहा कर्ज भरता पिता

इम्तहानों का जब भी पड़ा दौर है
नींद सोया कभी, रात जगता पिता

ठोकरें जब कभी भी लगीं हैं मुझे
दर्द मुझको हुआ आह भरता पिता

कब मेरे नाम से उसकी पहचान हो
ख्वाहिशें हैं सदा रब से करता पिता

देखता है पिता बढ़ रहा कद मिरा
देखती है नजर रोज ढलता पिता

इस जहाँ का पिता देख पाया न मैं
कुछ नहीं वो अलग तुझसे लगता पिता

.
सीमा हरि शर्मा 15.09.2014

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2014 at 10:23pm

आदरणीया सीमा हरि जी , पहली बार पिता पर कोइ ग़ज़ल पढ़ा , बहुत खुशी हुई , आपको बधाइयाँ इस दुर्लभ ग़ज़ल के लिए |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 16, 2014 at 9:02pm

देखता है पिता बढ़ रहा कद मिरा
देखती है नजर रोज ढलता पिता.........दिल को छू जाता शे'र. हार्दिक बधाई आदरणीया सीमा हरी जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 16, 2014 at 12:46pm

सीमाजी

आप की रचना से मुझे बड़ी आश्वस्ति  मिली क्योंकि मेरा पालन -पोषण मेरे तपोमूर्त्ति  पिता ने ही किया है i मेरा अनुभव है कि बेटियां पिता से अधिक लगाव रखती हैं I  बेटो को भी पिता का महत्त्व समझना चाहिए i  सुन्दर रचना और यह शेर -

देखता है पिता बढ़ रहा कद मिरा
देखती है नजर रोज ढलता पिता---------- बहुत उम्दा i

Comment by Shyam Narain Verma on September 16, 2014 at 9:48am
बहुत सुंदर, बधाई आपको

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