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" भाई! रामौतार.. यह साल तो खेती के हिसाब से बहुत ही बढ़िया रहा. काश! ऐसा हर साल ही होता  रहे "     दिनेश ने अपनी हथेली पर तंबाकू मे चूना लगाकर , रगड़ते हुए कहा

" हाँ भाई! दिनेश.. सच इस बार, हर साल की तुलना मे अतिवृष्टि से थोड़ी कम फसल ज़रूर हुई लेकिन लोक-सभा और विधान- सभा चुनाव के रहते सरकारों ने खूब मुआवज़ा भी दिया और फसल बीमा को भी मंज़ूरी  दिलवाई , तो देखो न! दोगुने से भी ज्यादा बचत हो गई " रामौतार ने दिनेश की हथेली पर से मली हुई तंबाकू अपने मुंह में दबाते हुए कहा

 

जितेंद्र 'गीत'

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 20, 2014 at 8:58am

आपकी उत्साहवर्धक सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय गिरिराज जी. स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 9:15am

जो वास्तव में हो रहा है वही आपने कथा के माध्यम से जाहिर  किया है , ऐसे ही फर्जी केस बनाए जाते हैं , सरकार भी जानती है और  अफसरान भी | वास्तविक ज़रुरत मंद रो रहा होगा | लाघुकथा  के लिए  बधाई , आदरणीय जितेन्द्र भाई |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 9:00am

लघुकथा पर आपके आशीर्वाद हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय लक्ष्मण जी. स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 8:58am

आदरणीय हरी जी, यह सब कौन सोचने बैठा है. आजकल तो 'मेरा' का समय है. रचना पर आपकी उपस्थिति से बहुत मनोबल मिला अपना स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 18, 2014 at 9:50am

त्वरित असुर क्षणिक लाभ की यह सोच स्वयं के स्वार्थ को दर्शाती है | असली किसान जिसे अन्नदाता कहा जाता है, वह तो 

जनता के लिए अधिकाधिक अन्न उपजाने के लिए ही अपना पसीना बहाता आया है | इस पनपती स्वार्थ भरी क्षणिक लाभ 

की सोच के लिए देश में वोटों की राजनीति पूर्ण रूप से जिम्मेदार है | सुंदर लघु कथा के लिए बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 17, 2014 at 12:45pm

आपकी  उत्साहवर्धन सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ , आदरणीय खुर्शीद साहब 

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 17, 2014 at 12:43pm

लघुकथा पर आपके विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूँ आदरणीय डा. विजय जी. अपने थोड़े से नुक्सान का कोई गम ही नही  है बस राहतों से फायदा जो हो चला. आपका ह्रदय से आभारी हूँ सर, स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by harivallabh sharma on September 17, 2014 at 11:00am

आखिर सरकार का धन कोष भी हमारा ही है...उसे यूं ही जाया न किया जावे ..यह सरकार और हमें भी सोचना होगा..सुन्दर प्रेरक व्यंग कथा,,बधाई आपको.

Comment by khursheed khairadi on September 17, 2014 at 9:33am

आदरणीय जितेंदर जी पांच छह पंक्तियों में व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है ,अभिनन्दन ,बधाई स्वीकार करें 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 17, 2014 at 12:14am
कहानी यह भी बताती है कि क्षतिपूर्ति और खैरात को लाभ समझना भी एक त्रुटिपूर्ण सोंच है , पर प्रश्न यह है कि लोगों की यह सोंच बदली कैसे जाए , ऐसी सोंच का माहौल तो है ही नहीं पूरे परिवेश में .
बधाई प्रिय जितेंद्र जी , आप सोंचते तो हैं इस ओर .

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