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२१२२/११२२/22 (११२)
.
यूँ वफ़ाओं का सिला मिलता रहा,
ज़ख्म हर बार नया मिलता रहा.
.

एक छोटी सी मुहब्बत का गुनाह,
और इल्ज़ाम बड़ा मिलता रहा.
.

मै तुझे दोस्त मेरा कैसे कहूँ,
तू भी तो बन के ख़ुदा मिलता रहा..
.

कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ मंज़िल का पता मिलता रहा.
.

एक दिन मैंने मनाया जो उसे,
फिर वो बेबात ख़फ़ा मिलता रहा.
.

मेरी तहज़ीब, मिलूँ मै झुककर,
शख्स हर एक बड़ा मिलता रहा.   
.
निलेश "नूर" 
मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 856

Comment

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Comment by Ketan Kamaal on September 5, 2014 at 10:42pm
Nilesh ji bahut khoob ghazal hai bhai ji kya kahne hai aapke
Comment by MAHIMA SHREE on September 5, 2014 at 4:20pm

मेरी तहज़ीब, मिलूँ मै झुककर,
शख्स हर एक बड़ा मिलता रहा.  लाजवाब हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय निलेश जी  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 2:57pm

धन्यवाद आ. राजेश कुमारी जी ..
सोचते सोचते ..मैंने भी यही लिखा है मेरी प्रति में ... लेकिन यहाँ शायद छूट गया ...
धन्यवाद ..दिल से 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 2:56pm

धन्यवाद आ लक्ष्मण जी, नरेन्द्र सिंह जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 5, 2014 at 12:25pm

मेरी तहज़ीब, मिला मै झुककर,
हर कोई मुझसे बड़ा मिलता रहा.    ----ये सही है ऐसा करने से मिसरा काल दोष मुक्त होगा 

हमेशा की तरह बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है 

कोई मंज़िल न मिली मंज़िल पर,
सिर्फ मंज़िल का पता मिलता रहा.----सबसे पसंदीदा शेर ,ग़ज़ल पर दिली दाद कबूलें 
.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 5, 2014 at 11:55am

आदरणीय भाई नीलेश जी , एक से बढ़कर एक शेर कहे हैं । इस सम्पूर्ण गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 11:17am

शुक्रिया आ. डॉ गोपाल नारायण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 11:16am

शुक्रिया आ डॉ. विजय शंकर  जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 11:16am

शुक्रिया आ. भुवन जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 5, 2014 at 11:16am

शुक्रिया आ. गिरिराज जी 

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