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ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

२२  २२  २२   २२

 

सन्नाटा भी पसरा सा है

उसका कमरा बिखरा सा है

 

अब तुम पास नहीं हो ,शायद

उसका मुखड़ा उतरा सा है

 

बुत  से कैसा कहना सुनना

हाफ़िज़ भी तो बहरा सा है

 

जीवन हुआ दिसंबर जैसा

आँखों में क्यों कुहरा सा है

 

देख के तुझे लगता है ये

चाँद कांच का कतरा सा है

 

गुमनाम बना लो घर कोई

अब खंजर का खतरा सा है

 

मौलिक व अप्रकाशित

 गुमनाम पिथौरागढ़ी

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 1:05am

ग़ज़ल का प्रवाह सही है.

जीवन हुआ दिसंबर जैसा ..  इसे मैं यों पढ़ गया ..

जीवन हुआ दिगम्बर जैसा

आँखों में पर कुहरा सा है. 

देख के तुझे को तुझे देख के  कर लें.

एक अच्छी कोशिश के लिए हार्दिक बधाई, गुमनाम भाई. 

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 30, 2014 at 5:20pm

जीवन22  हुआ दि22  बर22   जैसा22

दे2  ख के तु121  झे लग22  ता है 22 ये2

चाँ2  द कांच121   का कत22  रा सा 22 है-2


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 29, 2014 at 10:56pm

सन्नाटा भी पसरा सा है

उसका कमरा बिखरा सा है----सुन्दर 

 

अब तुम पास नहीं हो ,शायद

उसका मुखड़ा उतरा सा है-----

 

बुत  से कैसा कहना सुनना

हाफ़िज़ भी तो बहरा सा है-----बहुत खूब 

जीवन हुआ दिसंबर जैसा---इसकी बह्र फिर से जांच लें 

देख के तुझे लगता है ये

चाँद कांच का कतरा सा है----इसकी बह्र भी जांच लें 

गुमनाम बना लो घर कोई

अब खंजर का खतरा सा है-----भाव स्पष्ट नहीं है बहर ठीक है 

कुछ सुधार के पश्चात् ग़ज़ल निःसंदेह सुन्दर हो जायेगी बहरहाल बधाई आपको 

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 29, 2014 at 10:51pm

आदरणीय गुमनाम भाई , ग़ज़ल अच्छी कही है , आपको बधाइयाँ ! ४ था और ६वा शेर बात समझा नहीं पा रहे हैं , थोड़ा देखिएगा ||

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 29, 2014 at 5:10pm
गुमनाम बना लो घर कोई
अब खंजर का खतरा सा है ।
आगे। …
घर भरा साजो सामान है
जीवन भूला बिसरा सा है ।
बहुत सुन्दर आदरणीय गुमनाम जी , बधाई .

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