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धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार

भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार

 

उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज

कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज

 

चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज

ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज

 

मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल

काई से भरने लगा, संबंधों का ताल

 

नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय का नाद

अधरों पर अंकित हुआ, अधरों का अनुनाद

 

तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा संयोग

नयनों ने गाथा रची, नयनन योग-वियोग

 

जटिल सभी अभिप्राय हैं, क्लिष्ट हुए सब शब्द

जड़ होती संवेदना, अवमूल्यन प्रत्यब्द  

 

लहर-लहर हर भाव है, भँवर हुआ अब दंभ

विह्वल सा मन ढूँढता, रज-कण में वैदंभ 

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on July 19, 2014 at 9:52pm

आदरणीय गोपाल जी, आपका हार्दिक आभार!

वैदम्भ का दूसरा अर्थ अणु है. दोनों में से एक अर्थ तो समझना ही पड़ेगा. :))

Comment by बृजेश नीरज on July 19, 2014 at 9:18pm

आदरणीय गिरिराज जी, आपका हार्दिक आभार! आपने एक बहुत बड़ी त्रुटि की और इंगित किया इसके लिए विशेष आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 19, 2014 at 9:17pm

आदरणीय शरदिंदु जी, बहुत आभार आपका!

Comment by बृजेश नीरज on July 19, 2014 at 9:16pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपका बहुत-बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 19, 2014 at 9:15pm

आदरणीया कल्पना जी आपका हार्दिक आभार!!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 19, 2014 at 8:26pm

धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार

भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार

हम सब की भावना भी यही है ..सादर!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 19, 2014 at 4:28pm

प्रिय ब्रिजेश जी

भंडारी जी का कथन सही लग रहा है i ऐसा किया जा सकता है - जटिल सभी भावार्थ है ---- सादर  i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 19, 2014 at 4:22pm

प्रिय ब्रिजेश जी

आपके अधिकांश दोहे विमुग्धकारी है  अंतिम दोहे में '' वैदम्भ ''  शंकर का पर्याय है यह समझने में पसीने छूटेंगे i  पर आपको बहुत बहुत बधाई i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 19, 2014 at 11:39am

आदरनीय बृजेश् भाई , सभी दोहे एक से एक रचे हैं ॥ दिली बधाइअयाँ स्वीकार करें ॥

उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज

कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज ------- इस दोहे ने तो जैसे मेरे दिल की बात ही कह दी ॥ हार्दिक बधाई ॥

जटिल सभी अभिप्राय हैं --- आदरणीय , इस पद की मात्रा  एक बार और  गिन लीजिये ,  मेरे हिसाब से 14 मात्रायें हो रही हैं ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 19, 2014 at 2:05am

अद्भुत, अद्भुत बृजेश जी.....दोहे भी मुझे इस तरह आकर्षित कर सकते हैं यह 50 साल बाद पहली बार मुझे लगने लगा है. 50साल पहले कबीरदास और रहीम ने मुझे ऐसे ही चौंकाया था. मज़ा आ गया इन दोहों के कथ्य और कथन की मस्ती में आप्लुत होकर. सादर.

 

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