धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज
चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज
मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल
नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय का नाद
अधरों पर अंकित हुआ, अधरों का अनुनाद
तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा संयोग
नयनों ने गाथा रची, नयनन योग-वियोग
जटिल सभी अभिप्राय हैं, क्लिष्ट हुए सब शब्द
जड़ होती संवेदना, अवमूल्यन प्रत्यब्द
लहर-लहर हर भाव है, भँवर हुआ अब दंभ
विह्वल सा मन ढूँढता, रज-कण में वैदंभ
Comment
आदरणीय गोपाल जी, आपका हार्दिक आभार!
वैदम्भ का दूसरा अर्थ अणु है. दोनों में से एक अर्थ तो समझना ही पड़ेगा. :))
आदरणीय गिरिराज जी, आपका हार्दिक आभार! आपने एक बहुत बड़ी त्रुटि की और इंगित किया इसके लिए विशेष आभार!
आदरणीय शरदिंदु जी, बहुत आभार आपका!
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपका बहुत-बहुत आभार!
आदरणीया कल्पना जी आपका हार्दिक आभार!!
धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार
हम सब की भावना भी यही है ..सादर!
प्रिय ब्रिजेश जी
भंडारी जी का कथन सही लग रहा है i ऐसा किया जा सकता है - जटिल सभी भावार्थ है ---- सादर i
प्रिय ब्रिजेश जी
आपके अधिकांश दोहे विमुग्धकारी है अंतिम दोहे में '' वैदम्भ '' शंकर का पर्याय है यह समझने में पसीने छूटेंगे i पर आपको बहुत बहुत बधाई i
आदरनीय बृजेश् भाई , सभी दोहे एक से एक रचे हैं ॥ दिली बधाइअयाँ स्वीकार करें ॥
उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज ------- इस दोहे ने तो जैसे मेरे दिल की बात ही कह दी ॥ हार्दिक बधाई ॥
जटिल सभी अभिप्राय हैं --- आदरणीय , इस पद की मात्रा एक बार और गिन लीजिये , मेरे हिसाब से 14 मात्रायें हो रही हैं ॥
अद्भुत, अद्भुत बृजेश जी.....दोहे भी मुझे इस तरह आकर्षित कर सकते हैं यह 50 साल बाद पहली बार मुझे लगने लगा है. 50साल पहले कबीरदास और रहीम ने मुझे ऐसे ही चौंकाया था. मज़ा आ गया इन दोहों के कथ्य और कथन की मस्ती में आप्लुत होकर. सादर.
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