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रात जगता रहा दिन में सोता रहा
चाँद के ही सरीखे से होता रहा
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
रस्म मैंने निभायी नहीं है मगर
दिल में रिश्तों को अपने संजोता रहा
जो न मांगा मिला मुझको सौगात में
जिसको चाहा वो मुश्किल से होता रहा
मैंने अपने गले से लगाया जिसे
पीठ पर वो ही खंजर चुभोता रहा
अमित कुमार दुबे मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 कल्पना दी ग़ज़ल आपको पसंद आयी,लिखना सार्थक हुआ । गरिमामई उपस्थिती हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद ।
आपकी संभवतः पहली किसी रचना से गुजर रहा हूँ, भाईजी.
प्रस्तुतियों का इंतज़ार रहेगा.
शुभेच्छाएँ
//बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा//
वाह..वाह.. क्या ख्याल है !
उम्दा गज़ल के लिए बधाई।
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
मैंने अपने गले से लगाया जिसे
पीठ पर वो ही खंजर चुभोता रहा
बहुत खुबसूरत गजल, यह दो अश आर बहुत पसंद आये. हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय अमित जी
अच्छा है...
आदरणीय अमित जी,
इस अच्छी, सधी हुई ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा"
आ. अतुल भाई . उम्दा गज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
अमित जी
बहुत अच्छी ग जल i
रात जगता रहा दिन में सोता रहा
चाँद के ही सरीखे से होता रहा
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा ------ वाह i
सुंदर गज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय अमित जी
बेहद शुक्रिया शिज्जू भाई
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