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हम क्यों खोजते है
सच को
बार बार?
कस्तूरी के
मृग की तरह
वो तो सदा
हमारे बीच
ही रहता है.
हम उसे रोज
देखते है
सुनते हैं
सूंघते हैं
पर अंजान बन
उंघते है.
अगर हमने
मान लिया
हम सच जानते है
तो लोग हमें
झूठा कहेंगे
क्योंकि वो भी

कस्तूरी गंध के
सच को जानते है.

विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 1, 2014 at 10:10am

अति सुंदर, संदेशप्रद प्रस्तुति. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विजय जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 9:47am

आ0 भाई विजय प्रकाश जी इस बेहतरीरन भावप्रधान रचना के लिए हार्दिक बधाई कबूलें ।

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 30, 2014 at 10:23pm

आ० लक्ष्मण जी,आ० गोपाल नारायणजी,आ० विजय शॅंकर जी, आ० राजेश कुमारी जी,
पहले मैं आप सबका अभिनंदन करता हूँ,आपने इतनी बारीकी से रचना को देखा. आप सबों की सराहना हमेशा हौसलाफजाई करती है. बहुत -बहुत आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 9:31pm

बहुत सुन्दर रचना ..चंद शब्दों में बहुत गंभीर बात कह गई ,बधाई आपको आ०  विजय प्रकाश शर्मा  जी |

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 30, 2014 at 7:12pm
आदरणीय विजय प्रकाश जी ,
सारी समस्या यही है कि सच को जानते सब हैं , पर झूठ के पीछे भागते सब हैं . क्योंकि कुछ लोग झूठ में ही अपना सच तलाशते हैं , सारा भ्रम वही लोग तो फैलाते हैं . यही बात तो आदरणीय मोदी जी ने भी प्रसंगत: कह डाली संसद में। बस भटके हुए नहीं समझ पाते हैं।
सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई , सादर .
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 12:36pm

विजय प्रकाश जी 

आपने सच की सच्चाई पर बड़े कलात्मक ढंग से प्रकाश डाला  i बहुत  बेहतरीन i मै एहतराम करता हूँ  i

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 30, 2014 at 11:43am

सत्य को स्वीकारे करने का सन्देश देती सुन्दर रचना के लिए बधाई 

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