मेरे वज़ूद की
ज़मीं पे
उग आये हैं
यादों के तमाम
कैक्टस और बबूल
जो लम्हा - लम्हा
छलनी करते जा रहे हैं
मेरे जिस्मो जाँ को
और अब
मेरे जिस्म पे
छप गयी है
नीली स्याही से
एक उदास नज़्म
किसी गोदने की तरह
जो मेरी,
पहचान बनती जा रही है
मुकेश इलाहाबादी -----
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मुकेशजी, एक अरसे बाद पुनः आपको पढ़ना अच्छा लग रहा है.
इस सशक्त कविता के लिए हार्दिक बधाई,
सायकिक इम्प्रेशन्स से नित आकार लेता है इंसान का व्यक्तित्व
पर इस तरह...
नीली स्याही से
एक उदास नज़्म
किसी गोदने की तरह
इस गम और दर्द की अभिव्यक्ति पर वाह! कैसे हो
शुभकामनाएं आदरणीय मुकेश श्रीवास्तव जी
htnx - is hauslaa aafzaaee ke liye = Annupurna Bajpai jee - Aha Pandey Ojha, Jawahar Lala jee
छोटी साकार प्रस्तुति , बधाई ।
behtreen
बेहतरीन प्रस्तुति!
JEE- SABHEE MTIRAON KO RACHNAA PASANDGEE KE LIYE BAHUT BAHUT AAABHAAR - VISHESH ROOP SE - MEENA DHAR PAATHAK JEE, RAJESH KUMARI JEE, Dr. GOPAL NARAYAN SRIVASTAVA JEE AUR OPEN BOOKS KE SABHEE PAATHKO KO
कभी कभी यादें इंसान के वजूद पर इस कदर हावी हो जाती हैं ,आपकी प्रस्तुति में देखते ही बनता है कुछ ही शब्दों में आपने अपनी जिन्दगी के तमाम बर्खों को खोल दिया ...वाह वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति मुकेश जी बधाई आपको|
मुकेश जी
कम शब्दों में दमदार बात i बधाई हो i बहुत सुन्दर i
और अब
मेरे जिस्म पे
छप गयी है
नीली स्याही से
एक उदास नज़्म
किसी गोदने की तरह
जो मेरी,
पहचान बनती जा रही है.................बहुत सुन्दर .. बधाई आप को | सादर
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