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 2122   2122   2122   2122

ज़ुल्फ़ जब उसने बिखेरी बज़्मे-ख़ासो-आम में  

फ़र्क़ बेहद कम रहा उस वक़्त सुब्हो-शाम में

 

झाँककर परदे से उसने इक नज़र क्या देख ली 

जी नहीं लगता हमारा अब किसी भी काम में

 

सिर्फ़ ख़ाकी, खादी पर उठती रही हैं उंगलियाँ

मुझको तो नंगे नज़र आये हैं सब हम्माम में   

 

मान-मर्यादा, ज़रो-ज़न, इज्ज़तो, ग़ैरत तमाम

क्या नहीं गिरवी पड़ी है ख्व़ाहिशे-ईनाम में

 

एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप 

कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में

 

हैफ़ ‘साहिल’ तू ने भी तोड़ा भरोसे का भरम  

बिक गईं ख़ुद्दारियाँ तेरी भी सस्ते दाम में

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by vijay nikore on June 20, 2014 at 8:27am

बहुत ही सुन्दर गज़ल।  बधाई, आदरणीय सुशील जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 19, 2014 at 8:53am

मतले से शुरु हुआ अंदाज़ आगे एकदम से रंग बदल जाता है. बहुत खूब भाईजी.

एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप 

कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में...........  यह शेर अच्छा हुआ है.

दाद कुबूल करें.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 16, 2014 at 10:07pm

बहुत शानदार अशआर हुए हैं आ० सुशिल ठाकुर जी 

एक और जहां मतले की मुलायमियत नें बाँध लिया ..वही परदे वाले शेर भी बहुत पसंद आया 

और खाकी और मुफलिसों वाले शेर का अंदाज़ भी बेमिसाल लगा ..बहुत खूब 

हर शेर पर अलग अलग बधाई क़ुबूल कीजिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 16, 2014 at 9:34am

एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप 

कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में---वाह्ह्ह्हह ,सभी अशआर लाजबाब हुए आ० सुशील जी बेहतरीन ग़ज़ल ...आपकी ग़ज़ल की बहर में अंत में २१२  होना चाहिए 

 दिली दाद कबूलें |

Comment by MAHIMA SHREE on June 15, 2014 at 4:02pm

वाह लाजवाब ,.. हर शेर अपने आप में जबरदस्त है बधाई आपको

Comment by Meena Pathak on June 12, 2014 at 11:58pm

लाज़वाब..उम्दा..बेहतरीन .. बधाई बधाई बधाई 

Comment by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:48pm

बहुत खूब , वाह !!! क्या कहने सुंदर गजल हेतु बधाई । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 6:30pm

आदरणीय सुशील भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल कही है , दिली बधाई स्वीकार करें ।

हैफ़ ‘साहिल’ तू ने भी तोड़ा भरोसे का भरम  

बिक गईं ख़ुद्दारियाँ तेरी भी सस्ते दाम में ------ लाजवाब ! बधाइयाँ ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 11:40am

ज़ुल्फ़ जब उसने बिखेरी बज़्मे-ख़ासो-आम में  

फ़र्क़ बेहद कम रहा उस वक़्त सुब्हो-शाम में..... क्या कहने

झाँककर परदे से उसने इक नज़र क्या देख ली 

जी नहीं लगता हमारा अब किसी भी काम में... दीवानगी का खूब बयां हुआ

 मान-मर्यादा, ज़रो-ज़न, इज्ज़तो, ग़ैरत तमाम

क्या नहीं गिरवी पड़ी है ख्व़ाहिशे-ईनाम में.....कटु सत्य 

एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या समझेंगे आप 

कुछ महीने तो गुज़ारें आके ख़ासो-आम में......बिलकुल सही कहा सियासतदानों के लिए

बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई आ० भाई साहिल जी l

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