For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

तेरे धोखे को दुनिया भर की नजरों से छिपाया था//शकील जमशेदपुरी//

बह्र : 1222/1222/1222/1222

________________________________

तेरे धोखे को दुनिया भर की नजरों से छिपाया था
समझ लेना ये तेरे दिल में रहने का किराया था

सुनो वो गांव अपना इसलिए मैं छोड़ आया हूं
हमारे प्यार का मौसम वहां पर लौट आया था

तुम्हारी याद की चादर, तुम्हारे गम का बिस्तर था
तुम्हारे प्यार ने ऐसा भी मुझको दिन दिखाया था

चलो माना मैं पत्थर दिल हूं, लेकिन हद भी होती है
मैं हर इक सिम्त से टूटा, यूं उसने आजमाया था

मुझे हैरत है तेरे बिन भी मैं जिंदा रहा कैसे?
तुम्हें मालूम है? इक बार मैंने जह्र खाया था

-शकील जमशेदपुरी

________________________________

*मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 764

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 23, 2014 at 3:32am

शकील भाई, इस ग़ज़ल के लिए बधाई लें .. मतले से ही ग़ज़ल पवान चढ़ जाती है.

ढेर सारी दाद कुबूल करें.

Comment by vijay nikore on May 20, 2014 at 12:08pm

बहुत ही लाजवाब गज़ल लिखी है। बधाई, आदरणीय।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 19, 2014 at 8:40pm

आदरणीय शकील भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , सभी अशाअर सुन्दर लगे , आपको बधाइयाँ ॥

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 18, 2014 at 8:35pm

लाजवाब शकील साहब!

Comment by gumnaam pithoragarhi on May 17, 2014 at 6:55pm

चलो माना मैं पत्थर दिल हूं, लेकिन हद भी होती है
मैं हर इक सिम्त से टूटा, यूं उसने आजमाया था

बहुत खूब बधाई स्वीकारें

Comment by शकील समर on May 17, 2014 at 4:58pm

शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी। हौसला अफजाई और विस्तृत टिप्पणी के लिए।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 17, 2014 at 2:10pm

शकील जी हर अशार बेहतरीन है .आपके इस शानदार प्रयास के लिए तहे दिल धन्यवाद 

तुम्हारी याद की चादर, तुम्हारे गम का बिस्तर था
तुम्हारे प्यार ने ऐसा भी मुझको दिन दिखाया था..क्या दीवानगी है भाई वाह 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 16, 2014 at 11:15pm

तेरे धोखे को दुनिया भर की नजरों से छिपाया था
समझ लेना ये तेरे दिल में रहने का किराया था ......... वाह! क्या कमाल का मतला हुआ

सुनो वो गांव अपना इसलिए मैं छोड़ आया हूं
हमारे प्यार का मौसम वहां पर लौट आया था ..............सच! क्या बात कही है

तुम्हारी याद की चादर, तुम्हारे गम का बिस्तर था
तुम्हारे प्यार ने ऐसा भी मुझको दिन दिखाया था............. दिल को छू गया

चलो माना मैं पत्थर दिल हूं, लेकिन हद भी होती है
मैं हर इक सिम्त से टूटा, यूं उसने आजमाया था............. बहुत बहुत खूब

बहुत ही खुबसूरत गजल आदरणीय शकील साहब, हर एक शेर बहुत खूब कहा. तहे दिल से बधाइयाँ आपको

Comment by coontee mukerji on May 15, 2014 at 6:32pm

तेरे धोखे को दुनिया भर की नजरों से छिपाया था
समझ लेना ये तेरे दिल में रहने का किराया था......लाजवाब

तुम्हारी याद की चादर, तुम्हारे गम का बिस्तर था
तुम्हारे प्यार ने ऐसा भी मुझको दिन दिखाया था....अगर आशिक ऐसी गज़ल कहने लगे तो ऐ खुदा उसे बार बार माशूका धोखा देने गुश्तखी करने लगेगी. .....धोखे के गरज से नहीं बल्कि इश्क की मारी.....बहुत उम्दा गज़ल के लिये शकील जी दाद कूबूल करें

सादर.

Comment by शकील समर on May 15, 2014 at 5:57pm

जी बहुत—बहुत धन्यवाद आपका।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर और भावप्रधान गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
6 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"सीख गये - गजल ***** जब से हम भी पाप कमाना सीख गये गंगा  जी  में  खूब …"
10 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"पुनः आऊंगा माँ  ------------------ चलती रहेंगी साँसें तेरे गीत गुनगुनाऊंगा माँ , बूँद-बूँद…"
13 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"एक ग़ज़ल २२   २२   २२   २२   २२   …"
17 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"स्वागतम"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय चेतन जी सृजन के भावों को मान और सुझाव देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय गिरिराज जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। स्नेह के लिए आभार।"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।"
Thursday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरनीय लक्ष्मण भाई  , रिश्तों पर सार्थक दोहों की रचना के लिए बधाई "
Thursday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  भाई  , विरह पर रचे आपके दोहे अच्छे  लगे ,  रचना  के लिए आपको…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service