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ग़ज़ल: घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी

घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

 

ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी  

अपने हिस्से की ये चादर रह गयी

 

वो मुझे बस याद आया चल दिया

शाम मेरी याद से तर रह गयी

 

तृप्ति ने बोला बकाया काम है

और तृष्णा घर बनाकर रह गयी

नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा

थी कमी सूई बराबर रह गयी*

बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया

कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी

भुवन निस्तेज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment

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Comment by भुवन निस्तेज on April 17, 2014 at 8:53pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपका सादर आभार....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 3, 2014 at 11:23am

आपकी ग़ज़ल पर एक बार आ चुका हूँ लेकिन तब मसला बह्र को लेकर था. ग़ज़ल के शेरों से बात उभर कर आवे इसकी ओर भी ध्यन देना आवश्यक है. यानि संप्रषणीयता भी हो. इस प्रस्तुति के लिए बधाई.

सादर

Comment by भुवन निस्तेज on April 2, 2014 at 9:31pm

आदरणीय rajesh kumari जी, व Dr Ashutosh Mishra जी आप लोगों का सादर आभार ...

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 1:21pm

तृप्ति ने बोला बकाया काम है

और तृष्णा घर बनाकर रह गयी  आदरणीय भुवन जी सभी शेर एक से बढ़कर एक है ..मुझे आपका यस शेर बहुत पसंद आया..तहे दिल बढ़ाई के sath


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 28, 2014 at 9:58am

बहुत अच्छी ग़ज़ल लिखी है दिल से दाद कबूलें -----उनके आने से बनी मेरी ग़ज़ल ----कैसा रहेगा ?.

Comment by भुवन निस्तेज on March 27, 2014 at 10:41pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, गिरिराज भंडारी जी, कृष्ण सिंह पेला जी व अरुन शर्मा 'अनंत' जी आप लोगों का बेहद शुक्रिया..

यदि मकते को ऐसा करें तो कैसा रहेगा कृपया सुझाव दें, शायद इससे बह्र की समस्या भी निकल जाये और तकबुल-ए-रदीफ़ दोष भी निराकरण हो जाये...

बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया

 कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी

Comment by अरुन 'अनन्त' on March 27, 2014 at 3:35pm

आदरणीय भुवन निस्तेज जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर बहुत ही बढ़िया बन पड़े हैं मेरी ओर से दाद कुबूल फरमाएं. अंतिम शे'र में तकाबुले रदीफ़ का दोष है कृपया देख लें.

Comment by Krishnasingh Pela on March 26, 2014 at 11:39pm

अादरणीय साैरभ जी से मैं सहमत हूँ । अा भुवन जी बह्र या मात्रा में काेइ समस्या नहीं । सभी शेर काविले तारीफ हैं । फिर भी मतले में मिसरा ए उला थाेडा सहज हाेता ताे सायद अभिव्यक्ति अाैर भी सुन्दर हाेती । इसी तरह पाँचवे शेर में भी । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 11:21pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपने सही कहा है , और को    लिखने से मिसरा बह्र मे आ जायेगा ,  और लिखने की वज़ह से मिसरा बेबह्र  लग रहा है , आ, भुवन जी , और को औ कर लीजियेगा ॥

Comment by भुवन निस्तेज on March 26, 2014 at 11:01pm

परम आदरणीय गिरिराज भंडारी जी व सौरभ पाण्डेय जी मेरी कही ग़ज़ल के मिसरों पर आप जैसे महर्षियों के इस विमर्श से मुझ में निरंतर ऊर्जा का संचार हो रहा है.

मैं शायद आदरणीय सौरभ जी के मुताबिक तक्तीअ कर रहा था.

सादर

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