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सामने से गुज़र रही है

भीड़

हाथों में हैं झंडे

केसरिया

हरे

 

शोर बढ़ता जा रहा है

झंडे

हथियार बन गए हैं

जमीन लाल हो रही है

 

यह अजीब बात है

झंडे चाहे जिस रंग के हों

जमीन लाल ही होती है

      -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on March 14, 2014 at 8:03pm

आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 14, 2014 at 7:20pm

आपकी प्रस्तुत रचना एक वाद के सापेक्ष अपनी सार्थकता स्थापित करती दीखती है. अतः मेरा कुछ कहना अनुमन्य नहीं होगा. शायद.

झंडों या राष्ट्रभक्ति या पारंपरिक अस्मिता की अवधारणा को नकारती एक पूरी जमात खड़ी की गयी है, उस मानसिकता द्वारा जो स्वयं अपना ’झंडा’ उठाये एक समय से उनके विरुद्ध लाल-पीली होती रही है.
शुभ-शुभ
 

Comment by बृजेश नीरज on February 23, 2014 at 2:52pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on February 23, 2014 at 2:52pm

आदरणीय लक्ष्मण जी, राम शिरोमणि भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on February 23, 2014 at 2:51pm

आदरणीय नीरज भाई, श्याम नारायण जी आप दोनों का बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on February 23, 2014 at 2:50pm

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 23, 2014 at 7:59am

बहुत सुंदर गहन रचना, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 22, 2014 at 7:03pm

सुन्दर भाव लिए रची रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री बृजेश नीरज जी, सच्चाई यही है कि -

केसरिया झंडे लिए 

या फिर पहने 

केसरिया बाना 

धरती को तो 

होना है लाल ही ! 

Comment by ram shiromani pathak on February 22, 2014 at 4:44pm

गागर में सागर, आदरणीय भाई बृजेश जी  ,हार्दिक बधाई आपको  //सादर

Comment by Shyam Narain Verma on February 22, 2014 at 3:05pm
बहुत उम्दा ... बहुत बहुत बधाई...............

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