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एक तरही ग़ज़ल- शिज्जु

2122 1122 22/112

आँधी से उजड़ा शजर लगता है

वो बुलन्द अब भी मगर लगता है

 

सिर्फ किरदार नये हैं उसके

इक पुराना वो समर लगता है

 

बेकरानी में कहीं गुम शायद

इक बियाबान में घर लगता है

 

वो कहीं शिद्दते- तूफ़ाँ तो नही

रास्ता छोड़ अगर लगता है

 

पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो

तेरे हाथों में हुनर लगता है

 

काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर

बच के जाऊँ मुझे डर लगता है

 

आपके दम से जहीं है ये कलम

आपका दिल पे असर लगता है

समर = किस्सा या कहानी
बेकरानी = असीम विस्तार
जहीं(जहीन) = दक्ष

मुजस्सम = साकार

-मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:48pm

भाई आशीष जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:47pm

तारीफ के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया महिमा जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:47pm

आदरणीया कल्पना जी आप जैसी रचनाकार से अनुमोदन पाकर बहुत खुशी हुई आपका बहुत बहुत शुक्रिया।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:45pm

आदरणीय श्याम नारायणजी आपका तहेदिल से शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:45pm

आदरणीय अखिलेश सर रचना को मान देने के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 26, 2013 at 10:43pm

आदरणीय सुशीलजी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by ram shiromani pathak on December 26, 2013 at 10:32pm

सुन्दर ग़ज़ल भाई सिज्जू जी हार्दिक बधाई आपको,,,,,,,,,, 

Comment by रमेश कुमार चौहान on December 26, 2013 at 9:57pm

उम्दा भाईजान बधाई आपको

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on December 26, 2013 at 8:32pm

काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर

बच के जाऊँ मुझे डर लगता है |

क्या बात है !
बढ़िया ग़ज़ल भाई जी |

Comment by MAHIMA SHREE on December 26, 2013 at 7:54pm

पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो

तेरे हाथों में हुनर लगता है

 

आपके दम से जहीं है ये कलम

आपका दिल पे असर लगता है..... वाह बहुत ही खुबसूरत गज़ल कही आदरणीय शिज्जू जी बधाई आपको ..सादर

 

 

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