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गजल-खोलकर खिडकी तेरा अहसास करती हूँ--उमेश कटारा

वो तेरे नखरे तुझे कुछ खास करते हैं

आज भी हम तो मिलन की आस करते हैं

इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं

बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी

ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं

बेवफाई कर नहीं सकता सनम मेरा
लोग यूँ ही आजकल बकवास करते हैं

कौन आगे बोलता है अब सितमगर के
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं

उमेश कटारा

मौलिक एंव अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by umesh katara on December 20, 2013 at 9:27am

सही कहा निलेश भाई साहब मुझे भी अटपटा लग रहा है पर कोई दूसरा लफ्ज सूझ नहीं रहा था

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2013 at 8:57am

ग़ज़ल में काफ़िया "आस" है ..खास/ आस/ उपहास आदि ..इसमें लाश का होना ..काफ़िये के हिसाब से सही नहीं लगता है.
सादर   

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:46am

इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं

आदरणीय उमेश भाई , सुन्दर गज़ल कही है

Comment by umesh katara on December 19, 2013 at 9:28pm

कुछ तो कहा है गिरिराज जी मिसरे में -------साथ बैठकर भी लोग आजकल लाश कर देते हैं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 19, 2013 at 7:26pm

आदरणीय उमेश भाई , सुन्दर गज़ल कही है , अपको बधाई ॥ आदरणीय अविनाश भाई का प्रश्न जायज़ लगता है ,वो मिसरा कुछ कह नही पाया है ॥

Comment by annapurna bajpai on December 19, 2013 at 2:13pm

आ० उमेश कटारा जी सुंदर गजल के लिए बधाई , आखिरी लाइन  जिसे  आ० अविनाश जी ने भी इंगित किया है , को समझाने का आग्रह है । सादर 

Comment by savitamishra on December 19, 2013 at 10:22am

बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी

ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं......खुबसूरत

Comment by AVINASH S BAGDE on December 19, 2013 at 10:19am

बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं=????????

Comment by AVINASH S BAGDE on December 19, 2013 at 10:18am

इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं..wah! Umesh ji...

Comment by ajay sharma on December 18, 2013 at 10:19pm

बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी

ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं..........khoobsoorat 

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