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प्राण-समस्या .... (विजय निकोर)

प्राण-समस्या

 

सहारा युगानयुग से

फूलों को बेल का, पाँखुरी को फूल का

पत्तों को टहनी का

अब मुझको .... तुम्हारा

बहुत था

बाहों को साँसो के लिए ....

 

कुछ भी तो नहीं माँगा था

तुमने मुझसे

न मैंने तुमसे .... इस पर भी

स्नेह का अनन्त विस्तार

अभी भी बिछा है बिना तुम्हारे

बारिश की बूँदों में बारिश के बाद

आँगन की सोंधी मिट्टी में

कि जैसे .... तुम आ गए

 

हर खुला-अधखुला दृश्य

स्मृतिओं के ताल से

प्रकृति में उतार आता है

मेरे थरथराते मौन में पला

संतृप्त स्नेह तुम्हारा,

कह दे कोई इसको झुठलावा

पर जानती हूँ, इससे बड़ा

सृष्टि पर कोई सत्य नहीं है

 

तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी

बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति

मुझमें .... तुममें जीने की

जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद

ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी

का अर्थ

यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में

 

यही है मेरी प्राण-समस्या !

क्या हुआ !!

 

              ---------

 

                               -- विजय निकोर

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

 

 

 

 

 

Views: 647

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2013 at 12:38am

हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on December 17, 2013 at 4:28pm

बहुत ही सुंदर प्रस्‍तुति है आपकी, सादर

Comment by Vindu Babu on December 17, 2013 at 6:36am
आदरणीय:
आपकी प्रस्तुति सच में अन्त: कोलाहल उत्पन्न करने वाली है...क्या अद्भुत चित्र प्रस्तुत किया है आपने का अहेतुकी प्रीति का!
हार्दिक बधाई आपको इस भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए।

/प्रकृति में उतार आता है/ में उतार आता है या उतर आता है?
कविता पुन: पुन: पढने को बाध्य करती है।
सादर
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 17, 2013 at 12:11am

//तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी//  सच! बेहद सुंदर, अंतर की कोमल भावनायें जो जीने का सहारा बनी रहती हैं, बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी

Comment by Priyanka singh on December 16, 2013 at 8:22pm

तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी

बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति

मुझमें .... तुममें जीने की

जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद

ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी

का अर्थ

यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में

 

यही है मेरी प्राण-समस्या !

क्या हुआ !!

यही सच्चा प्रेम है न कोई शर्त न वादा...... फिर भी अटूट बंधन मन का और भावनाओं का.......बहुत सुन्दर शब्दों से सजाया आपने रचना को
और आपकी भावनाएं पढ़ कर महसूस होती है पाठकों को ……बधाई सर.....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 16, 2013 at 6:14pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , हर शब्द से विरह वेदना टपकती सी लग रही है , पाठक भी जिसे भोगने के लिये बाद्य हो जा रहा है । बहुत सुन्दर रचना , बहुत बधाई आपको ।

Comment by coontee mukerji on December 16, 2013 at 5:23pm

तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी

बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति

मुझमें .... तुममें जीने की

जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद

ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी

का अर्थ

यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में

 

यही है मेरी प्राण-समस्या !

क्या हुआ !!

 .............क्या कहूँ, कभी कभी कुछ न कहना बहुत कुछ कह देते हैं.सादर

कुंती.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2013 at 2:24pm

आदरणीय निकोरे जी

इस बार आपने तस्लीम कर लिया कि उनका दर्द भी आपका ही अपना दर्द है  i

जो आपकी प्राण-समस्या है वह उनकी भी i अलबत्ता  आपने इस बार अपना जिक्र नहीं किया i परन्तु --

दोनों ओर प्रेम पलता है i

सखी पतंग ही नहीं , दीपक भी जलता है i     बधाई  हो i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 16, 2013 at 2:23pm

आदरणीय सर ...

तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी

बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति

मुझमें .... तुममें जीने की

अत्यंत गूढ़ भावों को समाहित किये हुए अत्यंत शसक्त रचना हेतु तहे दिल बधाई ..सादर प्रणाम के साथ ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 16, 2013 at 1:39pm

तुमने तो कभी कोई वायदा नहीं किया था

तभी तो तुम्हारा

वायदा टूटने का कोई सवाल नहीं था

यही सूक्षम सोच मेरा सहारा बनी

बाँधे रखती है संकल्प-शक्ति

मुझमें .... तुममें जीने की

जब भीतर हर बारिश के थम जाने के बाद

ढूँढती हूँ टपकती हुई शेष ज़िन्दगी

का अर्थ

यंत्रवत .... तुम्हारी तलाश में

 

यही है मेरी प्राण-समस्या !

क्या हुआ !!

 बहुत सुन्दर बहुत सुन्दर ..आपकी सभी रचनाएं दिल तक पंहुचती हैं आदरणीय प्रकृति का बिम्ब लिए बहुत कुछ कह जाती हैं चुपके से .बधाई आपको इस अनुपम प्रस्तुति हेतु 

कृपया ध्यान दे...

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