कह पथिक विश्राम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम कहाँ
रवि सा जल
ना रुक, अथक चल
सीधी राह एक धर
रह एकनिष्ठ
बढ़ निडर .
अभी सुबह है,
बाकी है अभी
दुपहर का तपना.
अभी शाम कहाँ,
मंजिल पूर्व आराम कहाँ.
चलना तेरी मर्यादा
ना रुक, सीख बहना
अवरोधों को पार कर
मुश्किलों को सहना
आगे बढ़ , बन जल
स्वच्छ, निर्मल
अभी दूर है सिन्धु
अभी मुकाम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम कहाँ ..
..... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आपका हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी .. आपकी इस टिप्पणी के लिए . आप सब के साथ मुझे नित्य कुछ सीखने को मिलता है .. आप क्यों खेद व्यक्त करते हैं , खेद तो मुझे व्यक्त करना चाहिए कि मैं रूटीन से रूटीनी बने इस शब्द को भली भांति समझ नहीं पाया .. :) :) . चलिए इसी बहाने एक नया शब्द सीख गया .. स्नेह बनाये रखें ..
खेद है, भाईजी, मैं एक ऐसे शब्द के माध्यम से आपकी इस रचना पर संवाद स्थापित कर गया जो और उलझन ही पैदा कर रहा है. मैंने पिछले दिनों आपकी एक अति उन्नत रचना पढ़ी थी. उसके समक्ष यह कविता वहीवहीपन से लबरेज़ मिली. सो रुटीनी कह गया यानि ऐसी कविता जो किसी रुटीन की तरह अभिव्यक्त हो गयी है. इस शब्द के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.
आदरणीय सौरभ जी मैं रूटीनी का अर्थ नहीं समझ पाया .. आपका हार्दिक धन्यवाद ..
आदरणीय जीतेन्द्र गीत जी आपका हार्दिक आभार ..
यह तो एक रुटीनी ही हो गयी भाई.. !
//चलना तेरी मर्यादा
ना रुक, सीख बहना
अवरोधों को पार कर
मुश्किलों को सहना
आगे बढ़ , बन जल
स्वच्छ, निर्मल
अभी दूर है सिन्धु
अभी मुकाम कहाँ
मंजिल पूर्व आराम कहाँ ..//
निरंतरता का नाम ही तो जीवन है, सकारात्मक रचना पर बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज जी
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब हार्दिक आभार ..
आपका हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब ..
सतत चलते रने की प्रेरणा देती आपकी रचना के लिये आपको बधाइय़ाँ !!!!
नीर जी
आगे बढ़ने की सतत प्रेरणा देती कविता अर्थपूर्ण है i
आपको बधाई i
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