१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
पिला देती अगर साकी तो मैं भी बोल देता सच
हलक से गर उतर जाती तो मैं भी बोल देता सच
हसीं नगमे, हसीं जलवे, हसीं महफ़िल हसीनो की
हँसी रुसवा न गर होती तो मैं भी बोल देता सच
कहें शायर घनी काली घटाएं इन की जुल्फों को
न उनकी नींद गर उडती तो मैं भी बोल देता सच
बड़ी दिलकश हसीं कातिल चमकता चाँद सब कहते
हंसी गर सच को सह पाती तो मैं भी बोल देता सच
कतल होने मे गर आये मजा समझो की उल्फत है
अगर धड़कन नहीं बढ़ती तो मैं भी बोल देता सच
वो कातिल है छुपा बैठा जमाने की निगाहों से
मेरे दिल में वो न बसती तो मैं भी बोल देता सच
मौलिक व अप्रकाशित
डॉ आशुतोष मिश्र
Comment
रदीफ़ ही मन मोह गया, आदरणीय .. अच्छी ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबूल फ़रमायें.. .
सादर
वो कातिल है छुपा बैठा जमाने की निगाहों से
मेरे दिल में वो न बसती तो मैं भी बोल देता सच......वाह बहुत खूब ...आदरणीय मिश्रा जी बधार्इ हो।
आदरणीय रामअवध जी ..हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय बसंत जी आदरणीय विजय मिश्र हौसला अफजाई के लिए हार्दिक धन्यवाद ..सादर
अरुण जी ...उत्साह वर्धन और परामर्श र्श के लिए हार्दिक धन्यवाद ..आपके दिए मशविरे पे अमल करते हुए मैं ग़ज़ल में संशोधन कर लूँगा ..बस यूं ही स्नेह बनाए रखें ..सादर
आदरणीय संदीप जी ..उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय मिश्रा जी बधार्इ हो।
आ0 आशुतोष जी बेहतरीन गजल के लिये बहुत बहुत बधाई .........
बेहतरीन गज़ल हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीय आशुतोष जी
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