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हाले दिल जो छुपाने के काबिल न था ।
क्या कहूं मै सुनाने के काबिल न था ।

इस ज़माने ने मुझको नकारा नहीं
मै तो खुद ही ज़माने के काबिल न था ।

इस लिए वो मुझे आज़माते रहे ,
मै उन्हें आज़माने के काबिल न था ।

रंग तनहाइयों में ही भरने लगा ,
वो जो महफ़िल सजाने के काबिल न था ।  

बोझ रस्मों रिवाज़ों के कुछ भी न थे ,
पर उन्हे मै उठाने के काबिल न था ।

सूख कर दरिया वो राह में खो गया ,
जो सागर को पाने के काबिल न था ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 20, 2013 at 9:56pm

प्रेम जी

आप कहते है - काबिल न था

पर आपकी काबिलियत का कोई मुकाबिल न था i  

 बहुत सुन्दर ग़ज़ल है  i


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 20, 2013 at 8:59pm

नीरज जी, किस वजन पर आपने ग़ज़ल कही है, कृपया लिख दें, फिर मैं आता हूँ इस प्रस्तुति पर । 

कृपया ध्यान दे...

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