For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम 

और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'

-जिसे पहचानते हो तुम !

उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा 

एक अभिन्न को-

खामोश मन मंथन की गहराइयों में 

चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में 

पराचेतन की दिव्यता में.....

पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'

क्या पहचान भी पाओगे 

अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-

एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?

(मौलिक और अप्रकाशित) 

Views: 1227

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 12, 2013 at 8:51am

तुम में मैं को ढूँढना,नहीं बहुत आसान

गीता कितनों ने पढ़ी,पाये कितने ज्ञान ||

रचना की विलक्षणता को नमन......................  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 12, 2013 at 8:23am

इन्सान अगर अपने स्वयं का आत्ममंथन करे तो शायद हर 'मैं' और ' तुम' की दूरी को पाट सकता है, सदा की तरह आपकी गहन भाव से प्रस्तुत रचना पर हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीया डा. प्राची जी

सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 12, 2013 at 7:21am

आदरणीया प्राची जी , सीमित रह के कभी भी असीम  नही जाना जा सकता , या तो खुद असीम हो जायें  या असीम मे समाहित हो जायें दो ही रास्ते हैं !!!! बहुत सुन्दर और गम्भीर रचना के लिये आपको दिल से बधाई !!!!!!

Comment by वेदिका on November 11, 2013 at 11:45pm

पहचान की तलाश कहीं बाहर नहीं अपितु स्वयं के ही भीतर है| आपकी दिव्य लेखनी को नमन जो थोड़े मे ही सारा कुछ कह देती है|

सादर !! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on November 11, 2013 at 11:40pm

"मैं" जब कुहनी मारकर आगे आने लगता है आबद्ध "तुम" व्यक्त और परिस्फुट होने की बजाए भीतर ही भीतर दुबकने लगता है. जो मनुष्य "मैं" को अहसास की दीवार पर टांग कर निर्भीक हो आगे बढ़ सकता है केवल उसी को अव्यक्त, आबद्ध "तुम" की सिसकी सुनाई देती है...तभी बाहर और अंदर के "तुम" का मिलन होता है, उनकी परिभाषा एक हो जाती है. आदरणीया प्राची जी, मेरी यह समझ ठीक है या नहीं आप बताएँगी लेकिन इस अनुरणन को जन्म देने के लिये मैं आपको नमन करता हूँ. सादर.

Comment by annapurna bajpai on November 11, 2013 at 11:06pm

अति सुंदर भावों की अभिव्यक्ति , बधाई आपको । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 11, 2013 at 10:51pm

चिरमुक्त  तुम  I आबद्ध  तुम  I पहचान की  कसक  I वाह  प्राची जी i

 

उत्कृष्ट 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 11, 2013 at 9:11pm

जिसने उस तुम को खोज लिया समझ लिया उसने सम्पूर्णता को पा लिया सब सांसारिक दुखों से मुक्ति पा गया ,किन्तु आज की आपा धापी में किसके पास वक़्त है की अपने अन्दर के खुद को पहचाने ,बहुत सुन्दर प्रस्तुति हमेशा की तरह बहुत- बहुत बधाई आपको  

Comment by Neeraj Nishchal on November 11, 2013 at 7:35pm

नदी कि धारा में जैसे कोई तिनका खुद ब खुद
बहता चला जाए ऐसे आपकी कविता
शब्दों और भावों के संगम में पाठक बहता चला जाए
अप्रतिम बहुत खूबसूरत रचना ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service