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बुत शहर में बोलते इंसान भी तो हैं!//गज़ल//कल्पना रामानी

2122212221222

 

ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!

बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!

 

भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,

साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!

 

और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,

मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।

 

गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़

यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!

 

क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?

जानकर ये बन रहे, नादान भी तो हैं!

 

हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,

श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!

 

माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?

मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।

 

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  

 

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

 

Views: 880

Comment

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Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 13, 2013 at 8:45pm

खूबसूरत ग़ज़ल............हार्दिक बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on October 13, 2013 at 6:12pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by वीनस केसरी on October 12, 2013 at 1:54am

हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,

श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!

 

माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?

मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।

 

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं! 

आदरणीया बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है ये तीन शेर विशेष पसंद आये
बधाई स्वीकारें

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 11, 2013 at 4:49pm

आदरणीया बेहतरीन अशारों से सजी शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ..सादर 

Comment by Abhinav Arun on October 11, 2013 at 1:08pm

हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,

श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!

 

माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?

मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।

 

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  ............सुन्दर अश'आरो से सजी ग़ज़ल .आ.कल्पना जी हार्दिक बधाई आपको !

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 10, 2013 at 7:27pm

आदरणीया रामानी जी, वाह..! बेहतरीन गजल हुर्इ है। आप तहेदिल से बधार्इ स्वीकारें।   सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 10, 2013 at 7:24pm

जी आदरणीय कल्पना जी यही मैं भी सोचती हूँ जब हम देवनागरी में लिखते हैं और अधिक हिंदी शब्दों को लेते हैं तो हिंदी के अनुसार शहर लेना चाहिए मैंने भी कई बड़े ग़ज़ल कारों को लिखते देखा है किन्तु ये सिर्फ हमारी राय है विद्वद जन क्या कहते हैं नियम क्या कहते हैं वो देखना है ,हाँ यदि हम उर्दू के ज्यादा शब्दों को ले रहे हैं तो शह्र  लिखना चाहिए 

Comment by वेदिका on October 10, 2013 at 6:52pm

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं! ....सकारात्मक गज़ल 

बधाई आ0 कल्पना दीदी!

Comment by कल्पना रामानी on October 10, 2013 at 6:47pm

आदरणीय अरुण अनंत जी, सुशील जोशी जी, आदरणीया राजेशकुमारी जी, अन्नपूर्ण जी, वंदना जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणियों के लिए आप सबका हार्दिक धन्यवाद। शहर की मात्राओं के बारे में यहीं पर पूर्व में चर्चा हो चुकी है। चूंकि मैं उर्दू शब्दों की जानकारी नहीं रखती, इसलिए किसी भी शब्द की मात्राओं को हिन्दी उच्चारण के अनुसार ही लेती हूँ। हिन्दी में तीन वर्णों के शब्दों में अंतिम शब्द का उच्चारण प्रायः आधे शब्द जैसा ही होता है। कमल, गज़ल, सरल आदि 1+2 के अनुसार ही उच्चरित होते हैं, अतः मेरे विचार से हमें हिन्दी में शब्दों का सहज रूप ही देखना चाहिये। दुष्यंत जैसे प्रसिद्ध गजलकार ने भी शहर को 1+2 में ही प्रयोग किया है। इसलिए इस तरह के शब्दों को उसी नज़र से देखना चाहिए। पहले भी मैं इसी तरह के प्रयोग कर चुकी हूँ। अधिक तो आप सब स्वयं समझदार हैं।

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 10, 2013 at 4:53pm

आदरणीया वाह बेहतरीन ग़ज़ल हुई है हरेक अशआर हृदयस्पर्शी बन पड़ा है वर्तमान परिस्थिति को सुन्दरता से परिभाषित किया है, मैं भी आदरणीया राजेश माँ जी से सहमत हूँ शहर की मात्रा 12 नहीं अपितु २१ होती है. बहरहाल इस सुन्दर ग़ज़ल हेतु दिली दाद कुबूल फरमाएं.

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