अविश्वास !
प्रश्नचिन्ह !
उपेक्षा ! तिरस्कार !
के अनथक सिलसिले में घुटता..
बारूद भरी बन्दूक की
दिल दहलाती दहशत में साँसे गिनता..
पारा फाँकने की कसमसाहट में
ज़िंदगी से रिहाई की भीख माँगता..
निशदिन जलता..
अग्निपरीक्षा में,
पर अभिशप्त अगन ! कभी न निखार सकी कुंदन !
इसमें झुलस
बची है केवल राख !
....स्वर्णिम अस्तित्व की राख !
और राख की नीँव पर
कतरा-कतरा ढहता
राख के घरौंदे सा
बेमेल बंधन !
Comment
आदरणीया प्राची जी सुंदर रचना , बधाई
आ. प्राचीजी , बहुतों की यही व्यथा है, सुंदर रचना , बधाई।
आदरणीया प्राची जी , बहुत बेहतरीन रचना , अनुपम !! बधाई !!
सुन्दर प्रस्तुति ,बधाई प्राची जी
बेहद सुंदर अभिव्यक्ति , सच में एक अभिशाप की तरह होता है बेमेल बंधन , बधाई आपको
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