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एक मार्केटिंग मैनेज़र की आत्मव्यथा

मैं सपने बेचता हूँ।
आज के, कल के,
और कभी कभी तो बरसों बाद के भी।

इन सपनों की ज़रुरत नहीं तुम्हें।
इनका अहसास मैंने दिलाया है,
तुम्हारे जेहन में घुसकर...
तुम्हारे डर को कुरेदकर।

मैं और मुझ जैसे सैकड़ों लोग,
झांकते हैं,
तुम्हारे गुसलखानों में,
तुम्हारी रसोई में,
तुम्हारे ख्वाबगाहों में।

मुझे पता है,
कितनी दफा ब्रश करते हो तुम,
कैसे रोता है तुम्हारा बच्चा गीली नैपी में, और
क्यूँ तुम्हारे चेहरे की चमक खो गयी है,
इन धूल भरी गर्म आँधियों में।
मुझे ये भी पता है,
कि तुम्हे नींद नहीं आती आजकल
क्योंकि तुम्हारे पड़ोसी के घर
तुमसे बड़ी कार खड़ी हो गयी है।

झांकता हूँ मैं तुम्हारे निजी पलों में,
तुम्हारे ठहाकों, तुम्हारे आंसूओं में।
बस जानने के लिए तुम्हारी संवेदनाओं का स्वरुप।
मेरे लिए तुम एक सैंपल हो,
इस विस्तृत देश की संवेदनाओं का प्रतिनिधि..
बस और कुछ नहीं।

मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता,
कि तुम्हारी निजता खतरे में है,
कि तुम में से कई चीख रहे हैं,
इन अनावश्यक सपनों के बोझ तले।
मैं इत्मीनान से बोर्डरूम में बैठ, तुम्हारी संवेदनाओं से खेलता हूँ।
उन्हें अलग अलग खेमों में रख कर,
ढूंढता हूँ, डराने के नए नए तरीके।

कई दफे हार जाता हूँ,
तुम जब मानते नहीं बातों को,
जब तुम्हें डर नहीं लगता,
जब तुम सपने नहीं देखते।

ऐसे दिनों में कोसता हूँ तुम्हे, तुम्हारी संवेदनहीनता पर।

पर ऐसे दिनों के लिए,
ताकीद कर रखा है ऑफिस बॉय को,
कमरे से आईना हटा ले।

आईना शर्मिंदा करता है मुझे,
उन दिनों मेरे चेहरे पे,
तुम्हारी बेचारगी उभर आती है।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Arvind Kumar on August 5, 2013 at 10:33pm

धन्यवाद  D P Mathur जी,sharadindu mukerji जी,JAWAHAR LAL SINGH जी, जितेन्द्र 'गीत' जी, बृजेश नीरज जी, बसंत नेमा जी, अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, aman kumar जी, विजय मिश्र जी एवं MAHIMA SHREE जी. आभार।

आपकी टिप्पणियां सदैव मुझे अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करती रहेंगी।

Comment by MAHIMA SHREE on August 5, 2013 at 10:09pm

बाजारवाद  का विद्रूप  चेहरा और आम आदमी का उस चक्रव्यूह में फ़साने की साजिश , नाकामी का डर... बहुत ही शानदार प्रस्तुति ...पहली बार आपको पढ़ रही हूँ .. बहुत खूब .. बधाई आपको

Comment by विजय मिश्र on August 5, 2013 at 6:53pm
"मेरे लिए तुम एक सैंपल हो,
इस विस्तृत देश की संवेदनाओं का प्रतिनिधि..
बस और कुछ नहीं "

और ये भी

"आईना शर्मिंदा करता है मुझे,
उन दिनों मेरे चेहरे पे,
तुम्हारी बेचारगी उभर आती है।" -- कितना कुछ कह गया है!आत्महीन व्यवहारिक जगत और फिर भावनाओं का बिखराव .मर्मस्पर्श करता है .अतिसुन्दर रचना .बधाई अरविन्दजी .
Comment by aman kumar on August 5, 2013 at 2:13pm

बहुत ही सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 5, 2013 at 1:57pm

अरविंद भाई बेहद सुन्दर रचना रची है आपने हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by बसंत नेमा on August 5, 2013 at 10:55am

आदरणीय अरविन्द जी, बहुत बढ़िया रचना .बधाई 

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 10:39am

बहुत ही सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 5, 2013 at 9:51am

बहुत बढ़िया रचना आदरणीय अरविन्द जी, आपने युवा वर्ग की सम्वेदनाओ को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया, हार्दिक बधाई

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 5, 2013 at 5:15am

सही बात लिखी है आपने!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on August 5, 2013 at 12:17am

//झांकता हूँ मैं तुम्हारे निजी पलों में,
तुम्हारे ठहाकों, तुम्हारे आंसूओं में।
बस जानने के लिए तुम्हारी संवेदनाओं का स्वरुप।
मेरे लिए तुम एक सैंपल हो,
इस विस्तृत देश की संवेदनाओं का प्रतिनिधि..
बस और कुछ नहीं।//.....दिल से लिखी गयी कविता की बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ हैं ये. जीविका निर्वाह की लाचारी में आज के समाज का संवेदनशील युवावर्ग अपने अंदर किस तरह घुट रहा है ! आपने इस घुटन को शब्द देकर नयी आवाज़ पैदा की है....बहुत खूब...ऐसे  ही लिखते रहें...शुभकामनाएँ.

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