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Arvind Kumar
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Arvind Kumar's Page

Profile Information

Gender
Male
City State
Mumbai, Maharashtra
Native Place
Darbhanga, Bihar
Profession
Marketing Manager

Arvind Kumar's Blog

बहुत कुछ खो चुके हैं हम (ग़ज़ल)

अना की कब्र पर जबसे, गुलों को बो चुके हैं हम,

हमें लगने लगा है, फिर से जिंदा हो चुके हैं हम।



उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,

ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।



उतारे कोई अब तो, इन रिवाजों के सलीबों को,

छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम।



मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,

हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।



बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,

बहुत पाने की चाहत में,…

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Posted on February 3, 2014 at 12:30pm — 7 Comments

एक मार्केटिंग मैनेज़र की आत्मव्यथा

मैं सपने बेचता हूँ।

आज के, कल के,

और कभी कभी तो बरसों बाद के भी।



इन सपनों की ज़रुरत नहीं तुम्हें।

इनका अहसास मैंने दिलाया है,

तुम्हारे जेहन में घुसकर...

तुम्हारे डर को कुरेदकर।



मैं और मुझ जैसे सैकड़ों लोग,

झांकते हैं,

तुम्हारे गुसलखानों में,

तुम्हारी रसोई में,

तुम्हारे ख्वाबगाहों में।



मुझे पता है,

कितनी दफा ब्रश करते हो तुम,

कैसे रोता है तुम्हारा बच्चा गीली नैपी में, और

क्यूँ तुम्हारे चेहरे की चमक खो…

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Posted on August 4, 2013 at 7:30am — 11 Comments

किरदार

किसी भूली कहानी का, कोई किरदार दिखता है,

मेरा क़स्बा मुझे , अब सिर्फ इक बाज़ार दिखता है।



कि जैसे सर के बदले, आईनें हों सबके कन्धों पर,

मुझे हर शख्स मुझसा ही, यहाँ लाचार दिखता है।



यही इक मर्ज़ है उसका ,दवा भी बस यही उसकी,

शहर, चाहत में पैसे की, बहुत बीमार दिखता है।



बचेगी किस तरह मुझमें, किसी मंजिल की अब हसरत,

समंदर के सफ़र में, बस मुझे मंझधार दिखता है।



न कोई रब्त है, ना गम, न कुछ बाकी तमन्नाएँ,

ये शायर शय से सारी, इन दिनों…

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Posted on July 8, 2013 at 4:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल - कुछ तेरे होने तलक थी, कुछ तुम्हारे बाद है

कुछ मुझी में प्यार मेरा, इस कदर आबाद है,

कैद में दुनिया है मेरी, दिल मेरा आज़ाद है।



पाँव थमते ही नहीं, अब मंजिलों पर भी मेरे,

ये मेरी आवारगी, शायद मेरी हमजाद है।



कुछ दिनों से चाय की प्याली नहीं खनकी यहाँ,

बिन तेरे बिखरी रसोई, क्या कहाँ, कब याद है।



है जवानी भूलती इस बात को ना जाने क्यूँ,

इक बुढ़ापे ने ही इस घर की रखी बुनियाद है।



दिल को मेरे है शिकायत जाने…
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Posted on November 8, 2012 at 8:39pm — 7 Comments

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At 7:13pm on January 16, 2012, Admin said…

 
 
 

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