याद दिन हम को सुहाने आ रहे हैं
फिर से उन यादों के बादल छा रहे हैं
हमने घर अपनें बनाये रेत पर जब
याद वो बचपन के मंजर आ रहे हैं
कोयलों नें धुन सुरीली छेड़ दी है
गीत भी दीवानें भौंरे गा रहे हैं
कर दिया है आज टुकड़े टुकड़े दिल
छोड़ कर हम बज्म सारी जा रहे हैं
माल पूआ खाए मुद्दत हो गयी थी
ख्वाब में देखा अभी हम खा रहे हैं
आशु ये महफ़िल हसीनो से भरी है
जलवे पर इनके हमें भरमा रहे हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉ आशुतोष मिश्र , निदेशक ,आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश मो० ९८३९१६७८०१
Comment
याद दिन हम को सुहाने आ रहे हैं
फिर से उन यादों के बादल छा रहे हैं
हमने घर अपनें बनाये रेत पर जब
याद वो बचपन के मंजर आ रहे हैं
वाह वा बहुत खूब ...
शुरु के अशआर अपने ही रंग के हैं ...
हाँ बाद में ग़ज़ल में कुछ हल्कापन दिखा
विद्वतजन शिल्प पर पहले ही कह चुके हैं ... उनके कहे और निवेदन को मेरा भी निवेदन समझें ,,,
सादर
आदरणीय आशुतोष मिश्र जी, यादों के इस गुलदस्ते में बचपन से लेकर जवानी तक के रंगीन फूल अपनी मादक खुश्बू बिखेर रहे हैं. अच्छी गज़ल के लिए शुभकामनायें.
सुंदर.....बधाई
आदरणीय आशुतोषजी, आप सुझाये गये विन्दुओं के अनुसार इस ग़ज़ल पर पुनः प्रयास करें, हमें ही नहीं आदरणीय गनेस भाई को भी उत्तरमिल जायेगा.
शुभेच्छाएँ
आप सभी का प्रोत्साहन सतत लिखने की प्रेरणा देता है ....आदरनीय सौरभ जी आप जैसा गुरु मिल जाए तो छात्र दिन दूनी रात चुगुनी उन्नति करेंगे ..आप जिस तरह अपनी बिद्वता की पैनी नजर से बिश्लेशान करते हैं और जो मशविरा देते है वो दिमाग को नव स्फूर्ति और प्रेरणा देता है ...आदरनीय बागी जी आपके सुझाव की तरफ मैंने ध्यान तो दिया पर मुझे बिशेष समझ नहीं हैं कृपया मार्गदर्ष करें ..हार्दिक धन्यवाद के साथ
आशु ये महफ़िल हसीनो से भरी है
जलवे पर इनके हमें भरमा रहे हैं ..सुंदर प्रस्तुति
गजल की प्रस्तुति पर बधाई मतले और मक्ता के शेर बहुत उम्दा लगे, दाद काबुल करे
"कर दिया है आज टुकड़े टुकड़े दिल को
छोड़ कर हम बज्म सारी जा रहे हैं"
वाकई सर ये जांसोज़ शे'र है, इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई क़ुबूल फरमाएँ
आदरणीय, आपकी ग़ज़ल की प्रस्तुति पर बधाई.
याद दिन हम को सुहाने आ रहे हैं
फिर से उन यादों के बादल छा रहे हैं
मतला सुन्दरा ढंग से हुआ है.. .
हमने घर अपनें बनाये रेत पर जब
याद वो बचपन के मंजर आ रहे हैं
उला को क्या ऐसे किया जाय तो गेयता बनेगी .. हमने अपने घर बनाये रेत पर जब
हो सका है कि घर अपने बनाये में घर और अपने के बीच अलीफ़ वस्ल की सूरत होने से शायद गेयता बाधित हो रही है.
कोयलों नें धुन सुरीली छेड़ दी है
गीत भी दीवानें भौंरे गा रहे हैं
उला सुन्दर .. बहुत सुन्दर .. मंज़र सामने आगया.. वाह !
परन्तु सानी में कष्ट है. भी को अनावश्यक लिया गया दिखता है. सानी मिसरा पर फिर से कोशिश किया जाय, सर
कर दिया है आज टुकड़े टुकड़े दिल
छोड़ कर हम बज्म सारी जा रहे हैं
उला के आखिर में एक ग़ाफ़ (२ मात्रा) कम है. देखलें आदरणीय.
माल पूआ खाए मुद्दत हो गयी थी
ख्वाब में देखा अभी हम खा रहे हैं
हा हा हा.. यह शेर.. खैर .. :-)))
सही शब्द पुआ है न कि पूआ. तो इस हिसाब से मिसरा बेबह्र हुआ.
आशु ये महफ़िल हसीनो से भरी है
जलवे पर इनके हमें भरमा रहे हैं
बढिया.
आपकी कोशिश उत्साहवर्द्धक है आदरणीय. बधाई हो. बह्रऔर क़ाफ़िया आदि पर आप संयत और स्पष्ट हैं. अब कहन को साधने की कोशिश करें.
शुभ-शुभ
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