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तुम, मेरी पहचान !

                              तुम, मेरी पहचान !

            

                 

             तुम अति-सुगम सरल स्नेह से मेरी

                                            प्रथम पहचान

             मेरे   कालान्तरित   काव्य   की

             अंतिम कड़ी,

             गीतों की गमक में

             छंद  और  लय   बने ....

             पूर्णिमा की रात मेरे  लिए  तुम

             चमकते  तारों  का  कारण हो  ।

             सुनती हूँ, तुम देस-परदेस

             रात के उलझे पहरों में

             मुझको,

             मेरी परिकीर्ण पीड़ा की

             परिकल्पना  को जी रहे हो ।

             तुम्हारे अपने दर्द कुछ कम हैं क्या ?

             .......कि मेरी पीड़ा से आकृष्ट,

             तुम  चिंतित  क्षण-क्षण,

             निष्कपट मित्र-भाव से मेरे

             घिरे हुए असीम को जी रहे हो ?

             मैं यहाँ अपनी पीड़ा के

             अंतवर्ती विस्तार में अटकी,

             तुम

             मेरी पीड़ा की पराकाष्ठा से अनभिज्ञ,

             इस   बहती   पीड़ा   की   प्रसमता   में,

             उसकी गति में,  

             तुम रूकावट न बनो ।

            

             नये   प्रतीकों  और  बिम्बों  से  बहलाते,

             मुझको जीवितता का आभास न दो,

             कि मैं इस पथ पर पहले से पराभूत,

             निज   मान्यताओं   को   कुचल-कुचल,

             सर्व-सामान्य   का   अभिनय करती

             जीने के कितने स्वांग रचा चुकी हूँ,

             और सच, अब यह क्रिया

             अभिनय नहीं,

             मेरे जीने की कटु वास्तविकता है ।

        

             मान्यताओं का चुनाव, और

             सर्व-सामान्य जीवन का

                     जन्म-सिद्ध अधिकार

             अब मेरे परास में नहीं है ।

             तुम  अपनी  नींदों  को   यूँ

             रात की स्याही में डुबो कर

             मेरी पीड़ा से सम्बद्ध, इस तरह

             रह-रह  कर  और  मत   गलो ।

                          ------                             

                                                      - विजय निकोर

                                                         

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Comment by vijay nikore on February 6, 2014 at 11:27am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय योगराज भाई जी।

आशा है आपका स्नेह मिलता रहेगा।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:25pm

माँ में अपनी पहचान ढूंढती यह रचना दिल में उतर गई, हार्दिक बधाई।

Comment by vijay nikore on June 2, 2013 at 7:27am

आदरणीया सरिता जी:

 

आपकी सराहना मन को आनंदानुभुती से स्पंदित कर गई।

आपका धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by vijay nikore on June 2, 2013 at 7:21am

आदरणीया शालिनी जी:

 

कविता की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ।

 

धन्यवाद।

 

विजय निकोर

 

Comment by shalini rastogi on May 31, 2013 at 3:42pm

बहुत सुन्दर ,,

Comment by Sarita Bhatia on May 31, 2013 at 9:05am

तुम मेरी पहचान में आपने कितनी सुन्दरता से व्याख्या की है ,विजय जी बधाई स्वीकारें 

Comment by vijay nikore on May 16, 2013 at 9:02am

 

आदरणीया मित्र वंदना जी:

 

// आपकी रचनाएं इतनी गहन होती हैं कि कई बार पढने से समझ में आती है,

और जब समझ में आ जाती हैं तब तो फिर फिर पढ़ने का मन करता है।//

 

आपकी  स्नेह-रंजित प्रतिक्रियाओं के लिए हृदय से आभारी हूँ ।

प्रार्थना है कि भविष्य में भी आपकी उमीद पर पूरा उतर सकूँ।

 

आपके लिए शुभकामनाओं सहित।

 

सादर और सस्नेह,

विजय              ~

 

 

 

Comment by vijay nikore on May 15, 2013 at 8:20am

आदरणीय भाई शरदिंदु जी,

 

// एक बेहद आनंददायक रचना को पढ़ने की खुशी से सराबोर हो गया हूँ.....शब्द नहीं हैं आपका आभार व्यक्त करने के लिये.//

 

आप मेरी रचना की सराहना से मुझको सदैव जो मान देते हैं मैं उसके लिए हृदय से आभारी हूँ।

आशा है आपसे संबल मिलता रहेगा।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

 

Comment by vijay nikore on May 14, 2013 at 8:48am

आदरणीय अशोक जी:

 

//आपकी कम ही रचनाएं पढ़ी हैं किन्तु सभी में भावों का जो सम्प्रेषण है वह देखते ही बनता है. बहुत ही सुन्दर रचना.//

 

कविता की ऐसी सराहना से आत्मबल बढ़ाने के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय अशोक जी।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on May 14, 2013 at 8:44am

आदरणीय बृजेश जी:

 

आपने कहा, //आदरणीय आपकी लेखनी का जादू यहां चरम पर है। आपने जो रचा है उसे बार बार पढ़ने का मन कर रहा है। इसे अपने संग्रह में रख लिया है। आपको बधाई इस अप्रतिम रचना हेतु! //

 

भावी आशा मन में संजोए आपके सदभावी आशीर्वचनों के लिए आहूत धन्यवाद, प्रिय मित्र बृजेश जी ।

 

सा्दर और सस्नेह,

विजय निकोर

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