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गाँव के कच्चे घरों में
जहाँ दीवारों पर
पुती होती है पीली मिट्टी
और ज़मीन पर गेरू,
बच्चे बनाया करते हैं 
चित्र,
खींच देते हैं लकीरें
आड़ी-तिरछी,
इधर-उधर  

फिर जब माँ पोछा लगाती है
लिपाई करती है
मिट्टी और गेरू से,
धुल जाती हैं लकीरें
फिर बच्चे चित्रकारी करते हैं
लकीरें खींचते हैं,
फिर माँ लिपाई करती है
और
क्रम अनवरत चलता रहता है

शहर के पक्के घरों में
जहाँ दीवारों पर
लगा होता है मँहगा 'पेन्ट'
और ज़मीन पर बिछे होते हैं
'
टायल्स',
बच्चे चित्रकारी नहीं करते

दीवारों पर कोशिश भी करें
कुछ लिखने की,
तो पड़ जाती है डांट पिता की

और कभी मार भी, यह कहकर -
मकान मालिक आयेगा तो डांटेगा,
बड़ी मुश्किल से मिला है घर
किराये का ।


बच्चों की असँख्य कल्पनाएँ
घुट जाती हैं भीतर ही,
दब जाता है बचपन
मँहगे 'पेन्ट' और 'टायल्स'

की कीमत तले


 आशीष  नैथानी  'सलिल'
 
हैदराबाद

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Comment

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 30, 2013 at 8:24pm

आदरणीया डॉ नूतन डिमरी गैरोला जी,  बहुत-बहुत शुक्रिया । 

बच्चों का बचपन फिर से हरा-भरा हो यही उम्मीद है ।

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 30, 2013 at 8:20pm

आदरणीय सुरेन्द्र वर्मा जी,  हार्दिक धन्यवाद् । 

सही फरमाया,  "आधुनिकता और आर्थिक विकास की होड़ का सर्वाधिक खामियाजा बच्चे ही तो भुगत रहें हैं" ।
बस इसी बात को उजागर करने की एक कोशिश भर है यह रचना ।

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 29, 2013 at 8:13pm

आ0 आशीष नैथानी जी, अतिसुन्दर प्रसंग जिसे भवुकता में पिरो दिया। बहुत बहुत बधाई स्वीकारे। सादर,

Comment by vijay nikore on April 29, 2013 at 6:36pm

 

 

भावभीनी रचना... अथाह सराहना के साथ, आशीष जी।

सादर,

विजय निकोर

Comment by Usha Taneja on April 29, 2013 at 5:07pm

आह! बच्चों के सिमटते बचपन को अपने अपनी कविता के माध्यम से पाठकों के दिलों पर लकीरें खींच कर उकेरा ही| ये लकीरें लम्बे समय तक याद रहेंगी|

बहुत बढ़िया रचना!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 29, 2013 at 3:21pm

मै तो दो बार पेंट करा चुका. पर मेरे दो पोते एक पोती तो पुरे मकान की दीवारों को ही स्लेट समझ 

उनकी समझ से सुन्दर ड्राइंग बनाते नहीं चूकते | गाँव के कच्चे घरो में गोबर की पुताई से ये पक्के 

घर मुकाबला नहीं कर सकते इस महंगाई की मार में | न बच्चो को मार पड़े न मुखिया को महंगाई } सादर बधाई 

Comment by राजेश 'मृदु' on April 29, 2013 at 2:04pm

इस समय में हमें अपनी नस्‍लों पर खास ध्‍यान देना है क्‍योंकि उन्‍हें वो बहुत कुछ नहीं मिला जो हमने पाया, मैदान, पेड़, फूल,रंग और भी बहुत कुछ । आपकी रचना ने बहुत सफाई से इस ओर ध्‍यान दिलाया है । समाजोन्‍मुखी साहित्‍य फलेगा तभी समाज फलेगा, बहुत बधाई इस रचना पर, सादर

Comment by manoj shukla on April 29, 2013 at 8:29am
बहुत ही सुन्दर रचना...बधाई हो आदर्णीय
Comment by Ashok Kumar Raktale on April 29, 2013 at 7:36am

बिलकुल जी पूरी तरह सहमत हूँ बच्चे बचपन में दीवाल को ही अपनी स्लेट समझते हैं, पेंट बनाने वालों का शुक्रिया की कुछ अच्छे किस्म के पेंट पर लिखा हुआ मिट जाता है और बच्चे मार से बच जाते है. सुन्दर रचना बहुत बहुत बधाई भाई आशीष नैथानी जी.

Comment by ajay sharma on April 28, 2013 at 11:18pm

apki rachna se babsta ,,apni ik rachna yaad aa gayiiiiii.

sair sapate khel kilaune kitabo ki baante hai  

loot ke le gayi ye talime fursat mere bachho ki ...........

kewal  study stduy aur study ......bachpan to jaise zindagi ki duad ka ik kalkhand matra hi rah gaya  hai ,,,,,

दब जाता है बचपन 
मँहगे 'पेन्ट' और 'टायल्स'

की कीमत तले ।,,wah wah wah 

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