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(मौलिक व अप्रकाशित)

गोधूली वेला है
पर
गौ की धूली नहीं
जमाने के विकास तले
खो गयी है कहीं
गौ के खुरों की
गलीयों और
गाँव के ऊपर
उङती धूल
अब तो
नजर आती है
सिर्फ और सिर्फ
मोटरगाङियों के
टायरों की धूली
और
उनका धूम्र
चूल्हों और हारों से
उठता धूम्र भी
गाँवों से
होने लगा है गायब
नजर आता है अब
रसोई में रखा
गैस सिलेण्डर
दूध की कढावणी
और
गाय के लिए
बँटा (गर्म खिचङी)
तो बन्द हो ही गया।

- सतवीर वर्मा 'बिरकाळी'

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Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 16, 2013 at 6:48am
आ॰ सौरभ पाण्डे जी, रचना पर आपकी प्रतिक्रिया मिली, रचना सार्थक हुई। समय चक्र नें बहुत कुछ परिवर्तन किया है। कुछ परिवर्तन जो होने चाहिए, वो भी और कुछ परिवर्तन जो नहीं होने चाहिए, वो भी।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 2:08am

समय चक्र परिवर्तन का हामी है.. क्या कीजियेगा..

रचना हेतु बधाई

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 13, 2013 at 4:19pm
आ॰ लक्ष्मण प्रसाद लङीवाला जी, टिप्पणी स्थल पर अंकित आपके शब्दों से बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ मैं। आपके शब्दों ने एक सच्चाई उजागर की है। आपका बहुत बहुत आभार।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 13, 2013 at 3:59pm

अब क्या किया जावे सवीर जी, गो की धूलि अब उड़े नहीं, गोधुली वेला समझे नहीं

                                       फिर से पेड़ पोधे उपजे, चरागाह बने गौशाला न रही

                                       बिरकाली गाँव छोड़, सतबीर बीका के नगर आ रही

                                       संध्या वक्त की संध्या, न जाप में न भजन सुनावही

गोधुली वेला का ध्यान दिलाने पर माँ का संद्या पर भजन की याद तजा हो गयी, हार्दिक बधाई स्वीकारे                                           

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 13, 2013 at 3:51pm
आ॰ केवल प्रसाद जी, सादर प्रणाम।
आपने इस रचना पर अपने अनमोल विचार रखकर रचना की सार्थकता सिद्ध कर दी है, आभार।
Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 13, 2013 at 3:48pm
टिप्पणी स्थानक पर अपने हस्ताक्षर करने के लिए आभार आ॰ बृजेश कुमार सिंह जी।
आजकल बच्चों को जब तक इवनिंग नाम ना लो तब गौधूली और संध्या, साँझ समझ में नहीं आती है।
Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 13, 2013 at 3:42pm
टिप्पणी स्थानक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर हमारी रचना को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए शुक्रिया आ॰ जवाहर लाल सिँह जी।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 13, 2013 at 8:47am

माननीय श्री सतवीर वर्मा जी, सुप्रभात! सादर प्रणाम!!,आपकी कविता .गो धूली...‘गोधूली वेला है, पर गौ की धूली नहीं, जमाने के विकास तले खो गयी है!‘ वास्तव में शहरों का प्रदूषण अत्यधिक विकट समस्या है--- बहुत-बहुत बधाई !

Comment by बृजेश नीरज on March 13, 2013 at 7:23am

अब तो शहर के लोग इन देशज शब्दों का मतलब भी नहीं समझ पायेंगे।

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 13, 2013 at 4:16am

सत्य !

गोधूली वेला है
पर
गौ की धूली नहीं
जमाने के विकास तले
खो गयी है कहीं
गौ के खुरों की
गलीयों और
गाँव के ऊपर
उङती धूल
अब तो
नजर आती है
सिर्फ और सिर्फ
मोटरगाङियों के
टायरों की धूली
और
उनका धूम्र

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