एक लड़की...तीन लड्डू! (लघु-कथा)
एक लड़की कुछ बड़ी हुई तो मिठाइयों से सजी दुकाने देखी | रंग-बिरंगी तरह तरह के लड्डू देख कर उसका मन मचलने लगा | कुछ सहेलियों के हाथ में लड्डू देख कर उसे भी लगा कि मेरे भी हाथ में लड्डू हो, और समय आ गया | उस लड़की के लिए भी एक अच्छा सा लड्डू उसके घरवालों ने पसंद किया, जो उसकी झोली में आ गिरा, लेकिन लड़की जब तक उस लड्डू को अपना कह पाती एक तूफ़ान आया और लड़की की झोली से लड्डू उड़ गया, हवा में विलीन हो गया। लड़की इधर उधर भाग कर उसे खोजने लगी । लोगों ने समझाया कि अब वह लड्डू नष्ट हो चुका है, रुआंसी घबराई सी लड़की अपनी जगह पर वापस आई, अपने आप को समझाया कि भाग्य नाम की भी कोई चीज होती है, कोई बात नहीं, और इंतज़ार करने लगी कि दूसरा लड्डू मिलें, कि अचानक एक लड्डुओं से भरा हुआ थाल सामने आया । आहा! इसमें तो उसकी पसंद का एक मोतीचूर का लड्डू भी था, जिसकी चाहत उसे बरसों से थी, बस क्या था वह हाथ बढ़ा ही रही थी उसे लग रहा था कि बस! अब ये मेरा है, लेकिन कुदरत का खेल देखिए, फिर आंधी चली और वह मोतीचूर का लड्डू न जाने कहाँ खो गया, लेकिन इस बार लड़की घबराई नहीं और न ही उस मोतीचूर के लड्डू की तलाश में गई । वह मान गई थी कि भाग्य जैसी एक चीज जरुर होती है, उसने सामने नजर आ रहे थाल में से एक लड्डू फिर उठा लिया, यह बेसन का लड्डू उसका अपना था, लेकिन बहुत जल्दी आंधी थम गई और कहीं से वह मोतीचूर का लड्डू फिर सामने आ गया, मानों कह रहा था, ”मैं तुम्हारे लिए ही बना हूँ, मुझे उठा लो’’...लेकिन लड़की के हाथ में बेसन का उसका अपना लड्डू था और दोनों हाथों में लड्डू रखना उसके उसूलों के खिलाफ था ।
लड़की ने अपना बेसन का लड्डू संभाला और आँखें फेर ली, लेकिन कभी कभी उसे लगता है उसने अपने मन पसंद मोतीचूर के लड्डू की तरफ से आखें फेर कर अच्छा नहीं किया, न जाने आज वह किसके हिस्से का होगा और कहाँ होगा ?
काश ! कि उसका अता पता मिलें,वह एक बार नजर तो आए ।
Comment
हार्दिक आभार डॉ.प्राची जी!...बहुत अच्छा लगा कि यह लघुकथा आपको पसन्द आई!..लड्डू को इंगित माध्यम बना कर ही मैने लघुकथा को प्रस्तुत किया है!...धन्यवाद!
बहुत सुन्दर ....
लड्डू को इंगित माध्यम बहुत ही सटीक तरह से बनाया गया है.
मज़ा आ गया यह लघु कथा पढ़ कर.
हार्दिक बधाई
हर्दिक आभार विजय निकोरे जी!...कि आपको यह भावपूर्ण लघुकथा पसन्द आई!
आदरणीया अरुणा जी:
भाग्य क्या है, क्या नहीं है...!
हम इन ख़यालों में कितनी बार कैसे खो जाते हैं!
आपकी यह लघु कथा यह सोचने पर बाधित कर रही है।
बधाई।
विजय निकोर
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