माँ सरस्वती के चरणों में अर्पित आज का पुष्प
कल की पयस्विनी पय को भटक रही,
ममता की मारी माँ मय को गटक रही।
आँचल में दूध नहीं पानी आँख का गया,
सहरी सैलाब में सील वो सटक रही।
खिलने दिया नहीं वो बीज ही मसल दिया,
बागवां खामोश सब कलियाँ चटक रही।
दूध में ही पी के दर्द भर लिया कलेजे में,
कदर कोई नहीं बात ये खटक रही।
पूजनीया देवों की अब लूट नीया हो गई,
बच्चों की जमात भी कितना सहक रही।
इज्ज़त नीलाम हुई सरेआम बेलगाम ,
बच्चे पर राजनीति गले में अटक रही।
साँप आज आस्तीन में जो पलने लगे ,
दूध उन्हें देने की रिवायत खटक रही।
सोचनीय ब्रम्हचर्य नग्न क्यों हुआ है आज,
स्वामी जी की कमी फिर आज है खटक रही।
कभी पहनावे कभी पर्दे पै राजनीति ,
बहस में हल बिना संस्कृति सिमट रही।
सभ्यता की बात आज हर वो असभ्य करे ,
माथे पर जिसके तलवार हो लटक रही।
बात पर्दे की अब परदे में होने दो ,
चर्चा आम बंद करो भारती सिसक रही।
Comment
समसामयिक परिवेश को शब्द दे दिए हैं आपने
बहुत खूब मंजरी जी, अच्छा है कि पानी विहीन आँखें और दूध विहीन आँचल देखने को आज मैथिलिशरण गुप्त जी नही हैं..
अच्छी रचना की बधाई..
आदरणीय अभिनव अरुण जी रचनाओं पर पैनी नज़र के लिए कोटिशः साधुवाद।
डोक्टर अजय खरे जी मेरा उत्साह बढाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर जी। रचना आप जैसे कुछ लोगों को भी अच्छी लगी। मेरा प्रयास सार्थक हुआ . मेरा हौसला बढाने के लिए धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मन प्रसाद जी आपने रचना का मान रखा मेरा उत्साहवर्धन किया। बहुत बहुत धन्यवाद। भविष्य में भी मार्गदर्शन करते रहिएगा निवेदन है .
आदरणीय सौरभ जी सादर आभार एवं आशीर्वाद आपलोगों का।
साथ ही ओ बी ओ के मंच को भी नमन जहाँ एक से बढ़कर एक रचनाएँ एवं
हम जैसों को प्रेरणा का खज़ाना मिलता है . बहुत बहुत धन्यवाद रचना पर टिप्पड़ी के
इज्ज़त नीलाम हुई सरेआम बेलगाम ,
बच्चे पर राजनीति गले में अटक रही। -
साँप आज आस्तीन में जो पलने लगे ,
दूध उन्हें देने की रिवायत खटक रही। - गहरी वेदना युक्त पंक्तियाँ
आदरणीया मंजरीजी, आपकी द्विपदियाँ कई सार्थक प्रश्न झोंकती है और पाठक से अनुमोदन लेकर व्यावहारिक धरातल पर बहती जाती है.
हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ.
दूध में ही पी के दर्द भर लिया कलेजे में,
कदर कोई नहीं बात ये खटक रही।
पूजनीया देवों की अब लूट नीया हो गई,
बच्चों की जमात भी कितना सहक रही।
आदरणीया मंजरी जी ...दर्द को पिरोती हुयी ये रचना मन को छू गयी .. काश लोग आँखें खोलें समाज से न खेलें
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