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कविता - कंदील . मुर्दों के टीले पर !

पिछले कुछ दिनों से परेशान
परेशान है मेरा संवेदनशील हृदय 
जबसे बाज़ारों में आहट मिली है कि 
आने वाला है वैश्विक प्रेम पर्व 
सभी आतुर हैं संत वैलेंटाइन के योगदान को स्मरण करने को .
मैंने भी चाहा इस अवसर पर लिख सकूं एक प्रेम पगी कविता 
कई बार देर तक डूबा रहा स्मृतियों - विस्मृतियों की सोच  में 
बार बार खयाल आते रहे 
कि कैसे चंद्रयानी योजनाओं 
और फ़ोर्ब्स की सूची से संपन्न धनाढ्यों के देश में 
अपनी छोटी से छोटी इच्छाओं को
सकुशल और सहजता से पूरा नहीं कर पाता हाशिये का आदमी 
कैसे कुचल दी जाती है उसकी इच्छाएं और अक्सर उसकी देह भी 
वृद्धावस्था पेंशन या एक राशन कार्ड का मिलना 
उसके लिए नहीं होता वैलेंटाइन डे के कार्ड सरीखा 
खेत बिक जाते हैं इलाज में और रखी रह जाती हैं  
ग्रामीण स्वास्थय मिशन की उम्मीदें ब्लोंक की फाइलों में 
कैसे कुम्भ नहाने पुण्य कमाने गया उसका कुनबा 
बिखर जाता है मोअन - जो  - दड़ो की सभ्यता सा 
कैसे उसकी छोटी छोटी उम्मीदें जो हम शहरियों के हितों से कभी नहीं टकराती 
गाँव की चौहद्दी के भीतर दम तोड़ देती हैं 
कोई ह्यूमेन राइट नहीं होता उसका 
वह कभी राइटर की खबर नहीं बनता 
बूट हमारे हों या अंग्रेजों के उसने उनका बुरा नहीं माना 
वह खुश रहता है हमारे मॉलों  के किनारे पैदल ही मंडुआडीह से दशाश्वमेध तक चलकर 
बाबा विश्वनाथ उसके हैं 
उसकी गठरी को कोई खतरा नहीं 
वह तो घर से निकलता ही है सुमिरन कर 
गंगा मैया और महादेव की कृपा हुई तो ज़रूर लौटेगा 
बन्धु - बांधवों को जिमायेगा 
लेकिन वह नहीं जानता या उसके लिए इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं 
कि आज व्यवस्था बहुत सुदृढ़ हो गयी है 
वह पहले सा कहीं भी कभी भी किसी राह नहीं चल सकता 
आज वह सुराज है जिसका  सपना उसके पुरखों ने  देखा था 
आज वही सुराज लाठियों के साथ खड़ा है नगर की हर डगर पर 
रुकावटों की बैरीकेडिंग के साथ 
आज वह कहीं भी रूककर भौरी - चोखा नहीं लगा  सकता 
और न हीं कर सकता है आराम देह के थक जाने पर छूछ धूप  में तपती सड़क की फुटपाथ पर 
क्योंकि आज सरकार जाग रही है और उसका महकमा नहीं छोड़ेगा कोई अवसर 
यह बताने का कि सभ्यता ने कितना विकास कर लिया है यह इक्कीसवीं सदी है 
सब कुछ चलता है संविधान सम्मत 
हाँ मुआवजों पर हक है उसका पर मरी देह उसके किसी अपने की है 
यह साबित करना है उसी को
वह भी हमारी तरह इस देश का नागरिक है 
नगर पर उसका भी हक़ है और उल्लास पर भी 
आज उसकी आस्था उसके फाग और ' भाग ' पर बाज़ार का कब्ज़ा है 
और हम सोच रहे हैं कैसे लिखी जाए एक प्रेम कविता 
अब जबकि वेलेंटाइन डे बस आ ही गया है इस खुरदुरी सी  सोच के दरवाज़े को धकियाता बिलकुल पास
अप्रासंगिक करता मेरे टेबल पर पड़ी ' डॉ जिवागो ' और ' प्राइड एंड प्रीजुडिस ' के पन्नों को मेरे मानस से मिटाने की कुचेष्टा के साथ 
और मैं सोच रहा हूँ कब आएगा कोई चे - गवेरा या चारु मजुमदार जलाने  उम्मीद की कंदील 
मुर्दों के टीले पर .
                                                   - अभिनव अरुण 
                                                      {12022013}

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Comment by नादिर ख़ान on February 13, 2013 at 11:06am
कैसे उसकी छोटी छोटी उम्मीदें जो हम शहरियों के हितों से कभी नहीं टकराती 
गाँव की चौहद्दी के भीतर दम तोड़ देती हैं 
कोई ह्यूमेन राइट नहीं होता उसका 
वह कभी राइटर की खबर नहीं बनता 
बूट हमारे हों या अंग्रेजों के उसने उनका बुरा नहीं माना 
वह खुश रहता है हमारे मॉलों  के किनारे पैदल ही मंडुआडीह से दशाश्वमेध तक चलकर 
अदरणीय अरुण पांडे जी
क्या ही सच्चाई है इन पंक्तियों में
लाजवाब प्रस्तुति ..
Comment by Ashok Kumar Raktale on February 13, 2013 at 8:19am

आदरणीय 'अभिनव'जी सादर, वेलेंटाइन और अनहोनी के मेल को जो रफ़्तार आपने दी है की बस देखते ही बनाता है.हर पंक्ति लाजवाब है. दिली मुबारकबाद कुबुलें.

Comment by Abhinav Arun on February 13, 2013 at 7:52am
परम स्नेही श्री सौरभ जी ,यह आप का मुझ अनुज पर नेह है.अभिभूत हूँ .आपके शब्द कविता के लिए संजीवनी है.नत् हूँ ,आभार !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 12, 2013 at 11:42pm

जब आप अपनी रौ में होते हैं, भाईजी, तो बस आप होते हैं और साथ होती है, विसंगताओं के गरमाये टिन के चदरे पर छनछनाती-छटपटाती हुई आहत भावनाएँ शब्दकारी के साथ जो निरीह तो कत्तई नहीं होती, अलबत्ता अपनी तीखी, भेदक आवृति के साथ मस्तिष्क के सुसुप्त तंतुओं को झनझनाती हुई होती हैं ! प्रस्तुत रचना का वेग पाठकों को अपने साथ बहा ही नहीं ले जाता बल्कि सैंतता भी है. कविता के बिम्ब एकदम से ज़मीनी और सामयिक हैं, भाईजी. विकास के सरपट राजमार्ग के सापेक्ष फुटपाथ पर घिसटते जाने को बाध्य एक पूरी जमात की प्रच्छन्न दशा को यह कविता जिस तरह से स्वर देती है वह आपके कवि की उन्नत संवेदनशीलता का परिचायक है.

बहुत दिनों बाद मंच पर कोई रचना देख रहा हूँ जो लगातार थकते जाते किंतु फिर भी जीने को विवश किसी समुदाय की चीख को सार्थक शब्द देती हुई सी है.

भाई अरुण अभिनव जी, हार्दिक बधाई स्वीकार करें. आपकी यह कविता बहुत-बहुत दिनों तक याद रखी जायेगी.

शुभेच्छाएँ.

Comment by Abhinav Arun on February 12, 2013 at 8:05pm
आभार श्रीराम शिरोमणि जी !
Comment by ram shiromani pathak on February 12, 2013 at 7:44pm
बार बार खयाल आते रहे 
कि कैसे चंद्रयानी योजनाओं 
और फ़ोर्ब्स की सूची से संपन्न धनाढ्यों के देश में 
अपनी छोटी से छोटी इच्छाओं को
सकुशल और सहजता से पूरा नहीं कर पाता हाशिये का आदमी 
कैसे कुचल दी जाती है उसकी इच्छाएं और अक्सर उसकी देह भी 
वृद्धावस्था पेंशन या एक राशन कार्ड का मिलना 
उसके लिए नहीं होता वैलेंटाइन डे के कार्ड सरीखा 
खेत बिक जाते हैं इलाज में और रखी रह जाती हैं  
ग्रामीण स्वास्थय मिशन की उम्मीदें ब्लोंक की फाइलों में 
कैसे कुम्भ नहाने पुण्य कमाने गया उसका कुनबा 
बिखर जाता है मोअन - जो  - दड़ो की सभ्यता सा 
कैसे उसकी छोटी छोटी उम्मीदें जो हम शहरियों के हितों से कभी नहीं टकराती 
गाँव की चौहद्दी के भीतर दम तोड़ देती हैं !!!
वाह सर मेरे पास शब्द नहीं है..........क्या बात कही अपने....हार्दिक बधाई 

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