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लेख - अंतर्राष्ट्रीय फलक पर काशी के कवि

भारतेंदु , प्रेमचंद और प्रसाद की धरा वाराणसी साहित्य कला की दृष्टि से आज भी उर्वर है । बात लेखन की हो , चर्चा - विमर्श की या नयी ज़मीन -नयी धरा के तलाश की । कसक है तो इस बात की कि हम अपने साहित्यिक धरोहरों और समकालीन लेखन पर शोधपरक और समीक्षात्मक सिंहावलोकन नहीं कर पा रहे हैं । ऐसे में हाल में शहर वाराणसी के मध्य स्थित ऐतिहासिक "अभिमन्यू पुस्तकालय " में हुई एक काव्य गोष्ठी स्मरणीय रही । इस सन्दर्भ में कि इसकी पहल इटली के एक युवा छायाकार व् सृजनशील मीडिया कर्मी फेडेरिको कारपानी ने की । 
गत तीन फरवरी 2013 को अपराहन आयोजित इस गोष्ठी में काशी की करीब तीन पीढ़ियों के रचनाकार उपस्थित थे । वरिष्ठ कवि श्री विष्णु चन्द्र शर्मा की अध्यक्षता और श्री वशिष्ठ मुनि ओझा के सञ्चालन  में जो जुटान हुई उसमें श्री सरोज , डॉ मुक्ता , डॉ अनूप वशिष्ठ , प्रकाश उदय , बलभद्र , डॉ के पी प्रकाश , अभिनव अरुण , दीपंकर भट्टाचार्य , प्रो अवधेश प्रधान सहित दो दर्जन से अधिक कवि लेखक शामिल हुए । 
इतालवी छायाकार लेखक फेडेरिको ने बताया कि उनका प्रयास वाराणसी के कवियों पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक परियोजना के अंतर्गत है । इसके द्वारा वे यहाँ के कवियों के छायाचित्र , उनका संक्षिप्त परिचय , लेखन की विधा - दिशा एवं उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को पश्चिम तक पहुंचाना है । वे और इस परियोजना में उनके साथी टाइम सरीखी अन्तराष्ट्रीय पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं । इसके लिए फेडेरिको ने चुनिन्दा कवियों के साथ साक्षात्कार किये और अपने कैमरे से उनकी तस्वीरें लीं । वे रचनाएँ भी एकत्र कर रहे हैं । 
यह सब कुछ इस दृष्टि से सुखद है की जहां आज अपने देश में मुख्य धारा की पत्र - पत्रिकाओं और टी वी - रेडियो में साहित्य व्यावसायिकता का शिकार हो सिमट कर रह गया है । प्रकाशन भी पहले सा समाज सेवा नहीं रहा । इस ताम झाम के  बीच समर्थ रचनाकार ही सतह पर अपनी उपस्थिति का एहसास करा पा रहे हैं । वहीँ दूर देश में इस प्रकार के प्रयास हो रहे हैं । आज हमारी संगीत विधा , चिकत्सा व् योग परंपरा के साथ हमारे साहित्य को भी पश्चिम में उम्मीद से देखा जा रहा है । आवश्यकता है मठों और गढ़ों से परे समाज के लिए साहित्य की महत्ता के पुनर्प्रतिपादन की । इस पुनीत कार्य को सामर्थ्यवान और शासन दोनों ही जानिब से मिलकर किया जाना अपेक्षित है । 
 
                                                                                                                                         - अभिनव अरुण 
                                                                                                                                      वाराणसी {09022013}
                                                                                                                                 ( चित्र में इतालवी फेडेरिको कारपानी )

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Comment by Abhinav Arun on February 12, 2013 at 1:30pm

आदरणीया मंजरी जी आलेख को पढ़कर आपने उसपर अपनी प्रतिक्रिया दी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !! आप स्वयं काशी की प्रमुख समकालीन कवयित्री हैं और आपके कार्य सराहनीय हैं . हम सबको एक होकर साहित्य और समाज हित आगे बढ़ना है .

Comment by Abhinav Arun on February 12, 2013 at 1:24pm

हार्दिक साधुवाद श्री सरन जी आपने जानकारी दी . हम सब इससे लाभान्वित होंगे . हिंदी भाषा और साहित्य के उन्नयन के लिए विश्व हिंदी संस्थान के कार्य और प्रयास स्तुत्य हैं !!

Comment by Abhinav Arun on February 12, 2013 at 1:22pm

आदरणीय श्री सौरभ जी आपके विचार मार्गदर्शक हैं . और श्री कार्पानी जी को मेल पर मैं आपके विचारों से अवगत करा दूंगा ताकि वे इस बात का ख़याल रख सकें . हार्दिक आभार आपका !

Comment by mrs manjari pandey on February 12, 2013 at 12:41pm

अंतर्राष्ट्रीय फलक पर काशी के कवि " लेख उत्साहवर्धक है न केवल काशीवासियों के लिए बल्कि साहित्य जगत के लिए .

वैसे काशी का महात्म्य तो स्वतः सिद्ध है।

Comment by Prof. Saran Ghai on February 12, 2013 at 2:00am

भाई अभिनव जी, नमस्कार। आपके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट  "अंतर्राष्ट्रीय फलक पर काशी के कवि" पढ़ी। अच्छा लगा कि अब भारत के साहित्यमनीषि भारत से बाहर रह रहे हिंदी प्रेमियों के हिंदी प्रचार-प्रसार के प्रयासों को कुछ तजरीह देने लगे हैं। जो प्रयास कारपानी साहब हिंदी की सेव हित कर रहे हैं, स्तुत्य हैं लेकिन आपकी जानकारी के लिये यहाँ यह बता देना समिचीन होगा कि विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा इसी प्रकार के प्रयोग पहले से ही कर रही है। इस बारे में आप ’विश्व हिंदी संस्थान’ कि "विश्व कवि सम्मेलन २०१२- काव्यमाधुरी"  संबंधी रिपोर्ट ओपन बुक्स आनलाइन पर पढ़ सकते हैं। आप यू ट्यूब पर जाकर काव्यमाधुरी लिंक पर जाकर देख भी सकते हैं कि किस प्रकार हमने समस्त विश्व के हिंदी कवियों से उनकी कविताएँ मगवाकर कनाडा में रह रहे हिंदी कवियों से पढ़्वाईं। यह सब हम आपकी व आपसे जुड़े सभी हिंदी सेवियों की जानकारी तथा श्री कारपानी जी की सहायता के लिये लिख रहे हैं कि वे हमसे जुड़ें ताकि विश्व पटल पर एक दूसरे के सहयोग से हम सब मिलकर हिंदी की सेवा को गति दे सकें।

धन्यवाद,

प्रो. सरन घई, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 11, 2013 at 11:43pm

यह सही है कि काशी कल ही नहीं आज भी कला-कक्ष के वातायन को खोले उसके असीम आकाश और वहाँ बहती हवाओं का भरपूर आनन्द लेती है. काशी की यह विशेषता ही है कि साहित्य के क्षेत्र में तब भी परंपरा को निभाते हुए प्रयोगों को जीती थी और आज भी उसी रूप में जीती है. एक तथ्य और भी है जिसकी ओर पाठकों और मर्मज्ञों का ध्यान अक्सर कम जाता है और वो ये कि काशी के शब्द-चितेरे अपने टेम्परामेण्ट के अनुसार शब्द चयन और उनका प्रयोग करते रहे हैं, बाहरी धमक या साहित्य के अभिजात्य वर्ग की परवाह किए बग़ैर. उदाहरण स्वरूप आज के प्रबुद्ध कलमाकारों की विशिष्ट कृतियाँ ही ले लीजिये. ये भाषा से वातावरण तैयार करते रहे हैं.

यदि इतालवी छायाकार कारपानी साहब इस तथ्य को प्रकाश में ला कर आवश्यक विस्तार दे सके तो समझिये यह काशी के रचनाकारों की विशिष्टता एवं रचनाकर्म में उनकी नोवेल्टी को सम्मान होगा.

भाई अभिनव जी, उद्येश्य विशेष के आलोक में आयोजित एक गोष्ठी पर आपका तबसिरा सारगर्भित लगा.  हार्दिक बधाई.. .

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