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रौशनी तो उतनी ही देती है
कि सारा जहाँ जगमगा दे
निरंतर जल हर चेहरे पर
खुशियों की नदियाँ बहा दे
फिर भी नकारी जाती है क्यों??
वो अधजली लौ

मूक बन हर विपत्ति सह
पराश्रयी बन जलती जाती
परिंदों को आकर्षित कर
जलाने का पाप भी सह जाती
फिर भी दुत्कारी जाती है क्यों??
वो अधजली लौ

जीवन पथ पर तिल तिल जलती
आघृणि नहीं बन कर शशि
हर घर को तेज से अपने
रौशन करते हुए है चलती
फिर भी धिक्कारी जाती है क्यों??
वो अधजली लौ

अपना अस्तित्व कब खोज पायेगी
दूसरों के लिये नहीं अपने लिये
ये भी मुस्कुराकर जी जायेगी
बनावटी नहीं खालिस बन
कब पहचानी जायेगी??
वो अधजली लौ

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Comment

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Comment by deepti sharma on October 15, 2012 at 5:20pm

आदरणीय लक्ष्मण जी ...आदरणीया राजेश कुमारी जी .. आदरणीय राजेश जी .. बहुत बहुत आभार आप सभी का ..

Comment by राजेश 'मृदु' on October 5, 2012 at 3:40pm

बहुत सुंदर लिखा है आपने, इस अधजली लौ के गूढ़ार्थ अनेक हैं । साधुवाद उत्‍तम रचना के लिए


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Comment by rajesh kumari on October 5, 2012 at 12:43pm

मूक बन हर विपत्ति सह
पराश्रयी बन जलती जाती
परिंदों को आकर्षित कर
जलाने का पाप भी सह जाती
फिर भी दुत्कारी जाती है क्यों??
वो अधजली लौ-----बढ़िया बिम्ब बहुत अच्छी  प्रस्तुति 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 5, 2012 at 10:52am

फिर भी वो नक्कारी जाती, दुत्कारी जाती, धिक्कारी जाती अधजली लौ सुन्दर अभिव्यक्ति 

बधाई दीप्ति शर्मा जी 

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