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तुम जल रहे हो, हम जल रहे हैं

ख़ुद अपनी आँच में पिघल रहे हैं

 

नया  दौर  हैं नये हैं रस्मों-रिवाज़

अब इंसानियत के पैगाम बदल रहे हैं

 

बाज़ारों की रौनक है, जादू का खेल

किस शान ओ शौकत में पल रहे हैं

  

शब्दों की धज्जियाँ ऐसी उड़ी हैं

हर शब्द के मायने बदल रहे हैं

  

हमारे भी फ़र्ज़ हैं, कुछ इंसानियत पे

हम अपनी ही धुन में टहल रहे हैं

 

क्या लिखें, कितना, कब तक लिखें

अल्मारियों में बंद पन्ने गल रहे हैं 

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Comment

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Comment by Admin on October 8, 2012 at 6:40pm

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Comment by नादिर ख़ान on October 8, 2012 at 4:30pm

@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@

Comment by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 2:04pm

बहुत खूब कहा जनाब -

क्या लिखें, कितना, कब तक लिखें

अल्मारियों में बंद पन्ने गल रहे हैं 

Comment by नादिर ख़ान on September 30, 2012 at 6:59pm
बहुत शुक्रिया
Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 30, 2012 at 12:52am

हमारे भी फ़र्ज़ हैं, कुछ इंसानियत पे

हम अपनी ही धुन में टहल रहे हैं

नादिर जी  ..बहुत सुन्दर सन्देश  ...सुन्दर रचना  ....काश लोग सोचें 

अपना स्नेह बनाये रखें 
भ्रमर ५ 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 29, 2012 at 6:41pm

उम्दा रचना बहुत खूब 

कृपया ध्यान दे...

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