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कहै रतनाकर असीम रावरी तौ छमा,
छमता कहा लौ अपराध की हमारी है॥
दीजै और ताजन सबै जो मन भावे पर,
कीजै न दरस-रस वंचित बिचारी हैं ॥
भली हैं बुरी हैं और सलज्ज निरलज्ल हूं हैं,
जो हैं सो हैं पै परिचारिका तिहारी हैं॥"
एक पद छूट रहा है विंध्येश्वरी भाई. उसे भी प्रस्तुत करदें. आपका स्वाध्याय आपको रचनाकर्म हेतु आवश्यक धैर्य व संयम देता रहेगा. हृदय से बधाई.
भाई बागी जी व सौरभ जी से सहमत ! इसे डिलीट करना उचित नहीं ! हाँ आप सभी के सुझाव के अनुसार इसे और भी बेहतर अवश्य बना सकते हैं ! सस्नेह
//क्या इस रचना को डिलीट कर दिया जाय?//
ऐसा करना ओबीओ की मूल प्रकृति से इतर जाने की बात होगी. गणेशभाईजी के कहे का शत्-प्रतिशत् अनुमोदन.
//क्या इस रचना को डिलीट कर दिया जाय?//
किंचित नहीं, टेढ़ा है पर मेरा है :-)
आदरणीय सौरभ जी के कथन में मेरी भी सहमति है | सादर
विंध्येश्वरीभाई, अपनी वैयक्तिक व्यस्तताओं के कारण मैं आपके पोस्ट पर पुनः अभी आ पारहा हूँ.
//कृपा कर यह भी सुझाने का कष्ट करें कि किस प्रकार इसे बिम्बात्मक बनाया जा सकता है?//
आपसे अनुरोध है कि इन्हीं पन्नों में कई-एक लघुकथा अनुभवी तथा समृद्ध रचनाकारों द्वारा प्रस्तुत की जा चुकी है. सभी को आप अवश्य पढ़ें और उनपर मात्र पाठकीय दृष्टिकोण न रख उन पर साहित्यिक रचनाकार की तरह मनन करें. यह अपनी लेखकीय क्षमता को विशिष्ट करने का सबसे अच्छा तरीका है.
कथा अथवा किसी रचना के कथ्य को बिम्ब के सापेक्ष प्रस्तुत करने से मेरा तात्पर्य यह था कि सपाटबयानी रचनाओं, विशेषकर लघुकथाओं अथवा पद्य-क्षणिकाओं, के मूल के विरुद्ध जाती है. लघु रचनाएँ जिनमें कथ्य सान्द्र रूप में प्रस्तुत होता है, सदा से घटनाओं और भावनाओं को इंगित किया करती हैं, न कि तथ्यों को जस का तस उकेर देती हैं. एक साहित्यिक रचना प्रस्तुत करने में तथा पत्रकारिता के क्रम में रिपोर्ट प्रस्तुत करने में यही महती अंतर हुआ करता है.
विश्वास है, मैं अपने भावों को संप्रेषित कर पाया.
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