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"जिन्दगी का कोरा सच

"जिन्दगी का कोरा सच "

सच
जिन्दगी का
कभी ग़ज़ल बना
कभी नज्म
कभी रुबाइयाँ
लिखते रहे
गुनगुनाते रहे
सुनते रहे
सुनाते रहे
क्या क्या न लिखा
धुप छाँव
राह, मंजिल
पड़ाव
गुल, गुलशन
खार
कभी जिन्दगी
इक भार 
दोस्त, यार
फिर दुनिया में
भ्रष्टाचार
हाहाकार
कभी सम्मान
कभी तिरस्कार
कभी लगती रही 
ये व्यापार
खुद दुकानदार
कभी नफरत
तो कभी प्यार
बार बार
लेकिन
हर बार
कलम रुकी
सच में
हाँ सच में
जो कोरा है
हाँ मौत
मौत है
जिन्दगी का कोरा सच
जो कभी न लिख पाया
वो आज भी कोरा है 

संदीप पटेल "दीप"

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 11:34am

आदरणीय सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपकी प्रतिक्रिया मिलने के बाद लेखन की गहराई का अंदाजा सा लग जाता है
ये कविता मैंने कल ही महज १० मिनट में लिखी है
और कुछ शांति भंग करने वाले तत्वों के आगमन की वजह से अंत प्रभावित हो गया
या ऐसा कहूँ आपके कहे अनुसार इसे ढंग से पकाया नहीं और परोस दिया है
इसीलिए अंत में थोड़ी फीकी हो गयी
आपका निरंतर सहयोग, स्नेह  और आशीर्वाद से ही मैं इस तरह से लेखन कुछ आजमाइश कर लेता हूँ
किन्तु अगले प्रयास में आप और कसावट महसूस करेंगे ऐसा आपसे मेरा वायदा है 
स्नेह यूँ ही मुझ पर बनाये रखिये
आपका बहुत बहुत आभार

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 11:29am

आदरणीय गौरव अजीतेन्दु जी सादर नमस्कार
आपकी प्रसंसा मिली मन को सुखद अनुभूति हुई
ये स्नेह और सहयोग यूँ ही बनाये रखिये अनुज पर
सादर आभार आपका

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 11:28am

आदरणीय लक्ष्मण सर जी सादर नमन
आपकी सराहना मिली लेखन सफल हुआ
आपका ये स्नेह और सहयोग यूँ ही बनाये रखिये

सत्य ही कहा आपने वो सच लिखने में तो जितना लिखा जाये उतना कम है
फिर भी आप सभी सुधीजनों के बीच अपने कुछ विचार इस तरह रख दिए हैं
जिनको आपकी सराहना मिली
आपका ह्रदय से धन्यवाद और सादर आभार 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 11:25am

आदरणीय फूल सिंह जी सादर नमस्कार
आपकी मिली सराहना ह्रदय में धारते हुए ख़ुशी हो रही है
आपका बहुत बहुत आभार
अपना स्नेह अनुज पर यूँ ही बनाये रखिये


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 3, 2012 at 10:50pm

वाह, कविता सरपट दौड़ती हुई अपने मंजिल तक पहुची है, अंतिम पक्तियों तक आते आते ह्रदय को स्पर्श करती है यह रचना, बधाई हो संदीप जी |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 3, 2012 at 10:49pm

कवि की वैचारिकता, आत्म-मंथन एवं आत्मान्वेषण की प्रक्रिया-दशा को सुन्दर ढंग से उभारा है आपने, संदीप भाई.  हृदय से बधाई.

लगता है यह आपकी पहले की रचना है. इसका अंत और सुगढ़ हो सकता था. इसी कारण कह रहा हूँ.

सधन्यवाद

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 3, 2012 at 10:41pm

सत्य वचन मित्रवर........

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 3, 2012 at 7:09pm

मानव जिंदगी का सच कौरा ही है | प्रभु के गुण ही सच है जो लिख पाने को कागज भी अधुरा (कम है)तभी कबीर जी ने खा है

'सात समंदर की श्याही करों,लेखनी सब बन राइ 

 धरती रों कागद करों, हरी गुण लिख्या न जाई |
सुन्दर रचना,बधाई संदीप कुमार पटेल भाई |
Comment by PHOOL SINGH on September 3, 2012 at 5:31pm

संदीप जी नमस्कार,

बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना..........

फूल सिंह

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