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अनछुआ चैतन्य

क्या याद हैं
तुम्हें
वो लम्हे,
जब
हम तुम मिले थे ?

तब सिर्फ़
एक दूसरे को
ही नहीं सुना था हमने,
बल्कि,
सुना था हमने
उस शाश्वत खामोशी को
जिसने
हमें अद्वैत  कर दिया था....

तब सिर्फ़ 
सान्निध्य  को
ही नहीं जिया था हमने,
बल्कि,
जिया था हमने  
उस शून्यता को
जो रचयिता है
और विलय भी है
संपूर्ण सृष्टि की....

मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमने
एक दूसरे से....

तब से
ये
‘अनछुआ चैतन्य’
ही तो है
जो ले जा रहा है हमें
अज्ञान के अन्धकार  से दूर
एक नयी दृष्टि के साथ
सत्य के और करीब…

(23-02-2012)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2012 at 2:41pm

आपका बहुत बहुत आभार आ. सीमा जी आपने इस रचना की गहनता व चिंतन को मान दिया.
इस रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by Arun Sri on July 12, 2012 at 2:03pm

मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमनें
एक दूसरे से.... .......... अतिशय गहन और सुन्दर कविता ! हर बार की तरह !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2012 at 2:02pm
प्रिय अरुण शर्मा जी,
इस रचना को आपने पसंद किया आपका बहुत बहुत आभार.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2012 at 2:01pm
प्रिय संदीप पटेल जी,
इस कविता की शून्यता को, खामोशी को, गुफ्तगू को, यादों को सबको अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 12, 2012 at 1:58pm
आदरणीय अलबेला जी
इस कविता को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार.
 
आप अनुरोध कर रहे हैं, आप सम अग्रज का तो आदेश भी सर आँखों पर..
आपने अपना बेशकीमती वक़्त देकर टंकण त्रुटियों को ससंशोधन इंगित किया, आपका बहुत बहुत आभार...
 
अन्ना की तरह अनशन करने की क्या जरूरत  है, अन्ना अपनों के खिलाफ थोड़े ही अनशन करते हैं, OBO परिवार में अग्रजों, गुणीजनों और गुरुजनों का हर आदेश सर्वमान्य ही होता है.
 
सादर.
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2012 at 12:03pm

सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिए आपको बधाई
शून्यता का आभाष होता है कुछ पंक्तियों में
खामोशी स्वर लहरी सुनाई देती है
यादों की स्वर्णिम तस्वीर भी दिखाई देती है
गुफ्तगू के पल गुफ्तगू करते नज़र आते हैं

वाह वाह 

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 12, 2012 at 11:46am

वाह प्राची जी कमाल की रचना है, बहुत खूब बधाई

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on July 12, 2012 at 11:11am

अति सुन्दर! बधाई स्वीकार करें!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 12, 2012 at 9:57am

दुबारा पढ़ी   ये रचना सम्रद्ध भाव से परिपूर्ण इस अनुपम रचना के लिए बधाई प्राची जी 

Comment by Albela Khatri on July 12, 2012 at 9:10am

आदरणीय डॉ प्राची सिंह जी.......
बहुत बहुत बधाई आपको इस अनुपम कविता के लिए
सचमुच शानदार रचना है

___संयोग से  टंकण में कुछ अशुद्धियाँ  हो गयी हैं ये दूर कर लेंगे तो  और अच्छा हो जायेगा ऐसा मेरा विनम्र अनुरोध है ...अगर आप मान लेंगे तो ठीक वर्ना  कोई बात नहीं........मैं कोई अन्ना हज़ारे तो हूँ नहीं जो अनशन पर बैठ जाऊं अपनी मांग भरवाने  ( मनवाने ) के लिए  :-)

__वाह !
बहुत खूब रचना !!!!!!

क्या याद हैं ____________है
तुम्हे _________________तुम्हें
वो लम्हे
जब
हम तुम मिले थे
तब सिर्फ़
एक दूसरे को
ही नही सुना था हमने
बल्कि
सुना था हमनें _____________हमने
उस शाश्वत खामोशी को
जिसने
हमें अद्वेत कर दिया था....
तब सिर्फ़
सानिध्य को _______________सान्निध्य
ही नहीं जिया था हमनें _________हमने
बल्कि
जिया था हमनें ________हमने
उस शून्यता को
जो रचयिता है
और विलय भी है
संपूर्ण सृष्टि की....

मेरे पास
कुछ न था
तुम्हें देने को
सिवाय अपनी चेतना के,
और तुम्हारे पास भी
सिर्फ़ चेतना ही तो थी
जिसे बाँटा था हमनें _______हमने
एक दूसरे से....

तब से
ये

‘अनछुआ चैतन्य’
ही तो है
जो ले जा रहा है हमें
अज्ञान के अंधकार से दूर __________अन्धकार
एक नयी दृष्टि के साथ
सत्य के और करीब…

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