मरासिम उनसे था मेरा सूफियाना सा
गा भी लेते थे हम
सुना भी लेते थे हम
इबादत उनकी किया करते थे
खुदा से रूठ जाते थे
मना भी लेते थे हम
वक़्त-ए-फुरकत
उनसे वादा किया था
एक कतरा न गिरेगा कभी
ये आब-ए-जमजम
मेरी आँखों से
तो पाकीजा आब से भरे ये प्याले
रोज भरते तो हैं
पर छलकते कभी नहीं
और लोग हमें संगदिल सनम कहते हैं
ये कैसा वादा लेकर वो गए हैं
उस दिन से लेकर आज तक
जोड़ रहा हूँ
ग़मों के कंकर
जो मिलते हैं हर उस जगह
जहां उनकी यादें चली आती हैं
बिन बुलाये
अब ये कंकर जोड़ते जोड़ते
दर्द कोह होता जा रहा है
दिल में उठती हैं मौजें
पर डुबा नहीं पाती
इस कोह को
फिर भी तकिया सूखा ही रहता है
भीगने को बेताब
चादरों की सलवटें चीखती हैं
हर सुबह
तड़प उनके खोने की
कौन जानता है
उनसे बेहतर
पर वो हैं के आते नहीं
और वादा खिलाफी
हमें नहीं आती
सिखा दिया है
इंतज़ार करना
पलकें बिन झपके
दरवाजे पे टकटकी लगाए रहती हैं निगाहें
सन्नाटे चीखते हैं कानों में
कहते हैं भूल जाऊं
कमबख्त कहीं के
उनसे क्या कहूँ
उनको तो कब का भूल चुका हूँ में
पर उनकी याद बेशर्म है
रोज चुपके से मिलने चली आती है
और तुमको लगता है
मैं कुछ भी नहीं भूला
चलो चलो
तन्हाई आज फिर से मेरा
इंतज़ार कर रही होगी
बहुत मुश्किल होता है
इंतज़ार करना
मुझसे बेहतर कौन जानता है ये
बेचैनी होती है
इंतज़ार में
चलो चलो कहीं तन्हाई भी छोड़ गयी
तो मैं फिर तन्हा हो जाऊँगा
उसका कलाम किससे कह पाऊंगा
के "मरासिम उनसे था मेरा सूफियाना सा "
....संदीप पटेल "दीप".........
Comment
संदीप जी ,
रचना की वाह और तड़प की आह दोनो एक साथ स्वीकारिये।
भाई संदीप पटेल बहुत बहुत बहुत ही बेहेतरिन है ..सच्चे प्यार को परिभाषित किया है
प्यार को सुफियाना रूप दिया है ...तडपन की टीस..की प्रतीति कराती रचना
सादर बधाई
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